Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 21
________________ लिया। इस सबकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर पूजा-विधि-विधान प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हआ कि जहाँ हिन्दू परम्परा में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को शलाकापुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दोनों धाराएँ एक-दूसरे से समन्वित हुई। आज हमें उनकी इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ पैदा कर दी गयी है, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता को भी सम्यक् रूप से समझा जा सकें। दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच, अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू, सिक्खों, जो कि बृहद भारतीय परम्परा के ही अंग है, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा है कि जैन और बौद्धधर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म है, अपितु वे वैदिक हिन्दू-परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्धधर्म को वैदिक धर्म के प्रति विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सत्य है कि वैदिक और श्रमणपरम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर स्पष्ट मतभेद हैं। यह भी सत्य है कि जैनबौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की उन विकृतियों का, जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के शोषण के रूप में उभर रही थी, खुलकर विरोध किया, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया है। किन्तु स्मरण रखना होगा कि चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं होता, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन और बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैनधर्म और वैदिक (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारण है। चाहे अपने मूल में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक धर्म-परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हो, किन्तु आज न तो हिन्दू-परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णतः वैदिक है और न ही जैन-बौद्ध परम्परा पूर्णतः श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक पक्ष अभी भी प्रमुख है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैनधर्म आज भी निवृत्तिप्रधान हैं 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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