Book Title: Jain Dharma ki Aetihasik Vikas Yatra
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 30
________________ गया है कि प्रतिमास सहस्त्रों गायों का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य रूप में दान नहीं करता वरन् संयम का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। ' 'धम्मपद' में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिण देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करें तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ । " इस प्रकार जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डात्मक मान्यताओं को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया, साथ ही धर्म - साधना का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था, उसे आध्यात्मिक संस्पर्श द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के वैदिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इस प्रकार वैदिक संस्कृति को रूपान्तरिक करने का श्रेय सामान्य रूप में श्रमण परम्परा को और विशेष रूप से जैन - परम्परा को है । अर्हत् ऋषि परम्परा का सौहार्दपूर्ण इतिहास प्राकृत साहित्य में ‘ऋषिभाषित' (इसिभासियाइं ) और पालि साहित्य में 'थेरगाथा' ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीनकाल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी अर्हत् ऋषियों की समृद्ध परम्परा थी, जिनमें पारस्परिक सौहार्द था। 'ऋषिभाषित' जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, यह अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई.पू. लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीविका आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ अर्हत् ऋषियशों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासक एवं अनाग्रही दृष्टि अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ‘ऋषिभासित' (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन परम्परा के है और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के है, जहाँ ऋषिभाषित मे सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्र) और महाकव्यप बौद्ध परम्परा के है, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार 'थेरगाथा' में वर्द्धमान आदि जैनधारा के, तो 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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