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आदि ऋषियों को भी, जो कि वस्तुतः उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था, किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा, तो इन्हें प्रत्येक बुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया । इस प्रकार हम देखते है कि ई.पू. पाँचवी शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर की परम्परा तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारंभ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवती की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में ही पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णतः एकीकृत नहीं हो सकी। 'उत्तराध्यय' में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पार्श्वपत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी। यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर के परम्परा में विलीन हो गयी थी। फिर भी इतना निश्चित है कि पार्श्वपत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था
और महावीर की परम्परा ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था। पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है। कालान्तर में ऋषभ, नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्रागैतिहासिक काल के महान तीर्थकारों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकालीन सिद्ध किया है।
वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि वातरसना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमणधारा उस युग में भी जीवित थी जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ऐतिहासिक आधार पर यह बात कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यासमार्ग के आद्य प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। प्राचीन जैन ग्रन्थों में यह तो निर्विवाद रूप से मान लिया गया है ऋषभ भगवान् महावीर के समान पंच महाव्रत रूप धर्म के प्रस्तोता थे और उनकी आचार व्यवस्था महावीर के अनुरुप ही थी। ऋषभ के उल्लेख ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक में उपलब्ध है। डॉ. राधाकृष्णन ने 'यजर्वेद' में ऋषभ के अतिरिक्त अजित और अरिष्टनेमि के नामों की उपलब्धि की बात कही है। हिन्दू ‘पुराणों' और 'भागवत' में ऋषभ का जो जीवन चरित्र वर्णित है
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