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श्रमण एवं वैदिक संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा
यद्यपि पूर्व में हमने प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेयों को समझा है, किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधरा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये असम्भव थ कि वे एक-दूसरे के प्रभाव से अछूती रहें। अतः जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा (निवर्तक धर्म-परम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्म परम्परा के तत्त्वों का प्रवेश भी हुआ है। अतः आज के युग में कोई धर्म-परम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक प्रवृत्तिमार्ग की।
वस्तुत: निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक। मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ योजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग-मरीचिका में जीना होगा। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शेली खोजें जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनिक मानसिक एवं समाजिक सन्त्रास से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार इन दो भिन्न संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था। जैनधर्म में इसी प्रयास में मुनिधर्म के साथ-साथ गृहस्थधर्म का भी प्रतिपादन हुआ
और उसे विरताविरत अर्थात् आंशिक रूप से निवृत्त और आंशिक रूप से प्रवृत्त कहा गया।
भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। प्रवर्तकधारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण 'ईशावास्योपनिषद्' और 'भगवद्गीता' हैं। इन दोनों ग्रंथों में प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। श्रमण परम्परा की एक अन्य धारा के रूप में विकसित बौद्धधर्म में तो प्रवर्तक धारा के तत्त्वों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया। भारतीय धर्मों के ऐतिहासिक विकास-क्रम में हम कालक्रम में हुए इस आदान-प्रदान की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। इसी आदान-प्रदान के कारण ये परम्पराएँ एक-दूसरे के काफी निकट आ गई।
वस्तुत: भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चारदीवरियों
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