Book Title: Jain Dharm me Paryaya Ki Avdharna Author(s): Siddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah Publisher: L D Indology Ahmedabad View full book textPage 7
________________ प्राक्कथन भारतीय संस्कृति का पट विविध रंगी है जिसमें अनेक आचार और विचार, दर्शन और नीति की परम्पराओं का सम्मिश्रण एवं समन्वय है। इस सन्धात में जैन नय का महनीय स्थान है / आज के विषाद ग्रस्त मानव तथा हिंसा से त्रस्त विश्व के लिए जैन आचार-विचार के सिद्धान्त नितान्त सार्थक, उपयोगी एवं लाभप्रद हैं / इनका परिपालन विश्व में अहिंसा, शांति, सुख और समृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस दृष्टि से भारत सरकार द्वारा संस्थापित भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् जैन नय के मौलिक ग्रन्थों एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों पर कार्यशालाओं तथा गोष्ठियों का आयोजन कर रही है। ऐसी एक गोष्ठी कुछ समय पूर्व दिल्ली के आध्यात्म साधना केन्द्र में 'पर्याय' के सिद्धान्त को लेकर आयोजित की गई थी जिसमें देश के अनेक सुप्रसिद्ध संतों एवं सुविद् जनों ने भाग लिया था। गोष्ठी में 20 संशोधन परक लेख हिंदी तथा 15 लेख अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत हुए थे / वर्तमान ग्रन्थ में हिन्दी भाषा में प्रस्तुत लेखों का समावेश हुआ है / अंग्रेजी भाषा के लेख पृथक् रूप से प्रकाशित हो रहे हैं / पर्याय की अवधारणा जैन दर्शन की विशिष्ट एवं अनूठी देन है / यह जैन मत के केन्द्रीभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद को आधार प्रदान करती है / जैन मत में अस्तित्व का स्वरूप द्रव्य, गुण और पर्याय के समन्वित रूप में प्रतिपादित हुआ है / पर्याय के ही कारण द्रव्य और गुण अनेकानेक रूपों में अभिव्यक्त होते हैं और अवस्था विशेष को प्राप्त होते हैं / द्रव्य, गुण और पर्याय में भेदाभेद संबंध है जिसे अविनाभाव के रूप में भी अभिहित किया गया है। पर्याय नित्यता और परिवर्तन के बीच समन्वय का काम करता है। पर्याय के ही कारण वस्तु या सत् में प्रतिक्षण परिणमन होता है / अतः यह अस्तित्व की क्रियाशीलता का द्योतक है / इसी से उत्पाद और व्यय संभव होता है / पर्याय का सिद्धान्त बहु-आयामी है। यह न केवल अनेकांतवाद तथा नयवाद को आधार प्रदान करता है और नित्यानित्य के समन्वय को प्रस्तुत करता है वरन् ज्ञानमीमांसा तथा मूल्य मीमांसा में भी नया योगदान देता है। इसके आधार पर प्रमाण और नय का भेद ज्ञानमीमांसा में होता है। इसी के परिणाम स्वरूप स्याद्वाद तथा सप्तभंगी नय की प्रस्तुति होती है। भाषाकीय विश्लेषण में द्रव्यार्थिक और नयार्थिक का भेद इसी का प्रकल्प है। आचार एवं मूल्य मीमांसा में महाव्रत तथा अणुव्रत के वर्गीकरण को इसी आधार पर भलीभांति समझा जा सकता है / पर्याय के सिद्धान्त का सबसे महत्वपूर्ण और विशिष्ट योगदान गणित एवं सांख्यिकी संभावित अभिवृद्धि को लेकर है / इन दोनों विधाओं में अभी तक परिमाणात्मक स्वरूप ही विद्यमान है परन्तुPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 214