Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-12 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-8 (गीता, 3/35) / परधर्म अर्थात् दूसरे के स्वभाव को इसलिए भयावह कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिए स्वभाव न होकर विभाव होगा और जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। अतः आपका धर्म वही है जो आपका निज-स्वभाव है। किंतु आप सोचते होंगे कि बात अधिक स्पष्ट नहीं हुई। इससे हम कैसे जान लें कि हमारा धर्म क्या है? वस्तुतः हमें अपने धर्म को समझने के लिए अपने स्वभाव या अपनी प्रकृति को जानना होगा। किंतु यहां यह बात भी समझ लेनी होगी कि अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना स्वभाव या प्रकृति मान लेते हैं। अतः हमें स्वभाव और विभाव में अंतर को समझ लेना है। स्वभाव वह है, जो स्वतः (अपने आप) होता है और विभाव वह है, जो दूसरे के कारण होता है, जैसे पानी में शीतलता स्वाभाविक है, किंतु उष्णता वैभाविक है, क्योंकि उसके लिए उसे आग के संयोग की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, जिसे होने के लिए किसी बाहरी तत्व की अपेक्षा है वह सब विभाव है, पर-धर्म है। शीतलता पानी का धर्म है और जलाना आग का धर्म है। पुनः जिस गुण को छोड़ा जा सकता है वह उस वस्तु का धर्म नहीं हो सकता है। किंतु जो गुण पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता है वही उस वस्तु का स्व-धर्म होता है। आग चाहे किसी भी रूप में हो वह जलाएगी ही, पानी चाहे आग के संयोग से कितना ही गरम क्यों न हो यदि उसे आग पर डालेंगे तो वह आग को शीतल ही करेगा। आप सोचते होंगे कि आग और पानी की धर्म की इस चर्चा से मनुष्य के धर्म को हम कैसे जान पाएंगे? यहां इस चर्चा की उपयोगिता यही है कि हम स्वभाव और विभाव का अंतर समझ लें, क्योंकि अनेक बार हम आरोपित गुणों को ही स्वभाव मानने की भूल कर बैठते हैं, अक्सर हम कहते हैं उसका स्वभाव क्रोधी है। प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध स्वभाव है या हो भी सकता है ? बात ऐसी नहीं है। इस कसौटी पर क्रोध और शांति के दो गुणों को कसिए और देखिए, इनमें से मनुष्य का स्वधर्म क्या है? पहली बात तो यह है कि क्रोध कभी स्वतः नहीं होता, बिना किसी बाहरी कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं। गुस्से या क्रोध का कोई न कोई बाह्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 152