Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 12
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-10 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-6 मानस की अभिव्यक्ति है, जो कि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या अस्वीकृति का नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समत्व के संस्थापन का है। अतः जहां तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियां उसमें साधक हो सकती हैं, वहां तक वे स्वीकार्य हैं और जहां तक वे उसमें बाधक हैं वहां तक त्याज्य हैं। भगवान् महावीर ने आचारांगसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में इस बात को बहुत स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इंद्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इंद्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या / दुःखद न हो, अतः त्याग इंद्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि इंद्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्तया वीतराग के लिए नहीं। अतः जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं, क्योंकि उसकी दृष्टि में ममत्व या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दुःखों का निराकरण सम्भव है। धर्म साधना का उद्देश्य है - व्यक्ति को शांति प्रदान करना, किंतु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे हैं - एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा है। शांतिप्रदाता धर्म ही आज अशांति का कारण बन गया है। वस्तुतः इसका कारण धर्म नहीं, अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमने 'धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गए हैं। आए देखें धर्म का सचा स्वरूप क्या है?

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