Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 11
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-9 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-5 और न कोई मित्र। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रस्थित आत्मा शत्रु है। अतः सुख-दुःख की खोज पदार्थों में न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत आत्म तत्व ही अपना है, शेष सभी संयोगजन्य पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, अपने नहीं हैं। इन सांयोगिक उपलब्धियों में ममत्वबुद्धि दुःख परम्परा का कारण है, अतः आनंद की प्राप्ति हेतुइनके प्रति ममत्वबुद्धि का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है। संक्षेप में देहादि आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग और भौतिक उपलब्धियों के स्थान पर आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना अध्यात्मविद्या और जैनधर्म का मूलतत्व है और यही मानव जाति के मंगल का मार्ग है, क्योंकि इसी के द्वारा आधुनिक मानव को आंतरिक एवं बाह्य तनावों से मुक्त कर निराकुल बनाया जा सकता ममता का विसर्जन/दुःख का निराकरण ... आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जाए। जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथभाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। शरीर शाश्वत आनंद के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्व भी है और उसका सार-सम्भाल भी करना है। किंतु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं, कूल पर होना है, नौका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्मविद्या का हार्द है। यह वह विभाजक रेखा है, जो अध्यात्म और भौतिकवाद में अंतर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धियां या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अंतिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन हैं। जैन धर्म की भाषा में कहें तो साधक का वस्तुओं का त्याग और वस्तुओं का ग्रहण दोनों ही संयम (समत्व) की साधना के लिए हैं। जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग

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