Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 9
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-7 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-3 लौट जाए या फिर एक नए मानव का सृजन करे, किंतु पहला विकल्प अब न तो सम्भव है और न वरेण्य। अतः आज एक ही विकल्प शेष है - एक नए आध्यात्मिक मानव का निर्माण, अन्यथा आज हम उस कगार पर खड़े हैं, जहां मानव जाति का सर्वनाश हमें पुकार रहा है। यहां जोश का यह कथन कितना मौजूं है - सफाइयां हो रही हैं जितनी, दिल उतने ही हो रहे हैं मैले। अंधेरा छा जाएगा जहां में, अगर यही रोशनी रहेगी। इस निर्णायक स्थिति में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों में से कौन उसे वर्तमान संकट से उबार सकता है ? जैन धर्म कहता है कि भौतिकवादी दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा तद्जनित स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, क्योंकि भौतिकवादी दृष्टि में मनुष्य मूलतः पशु ही है। वह मनुष्य को एक आध्यात्मिक (Spiritual being) न मानकर एक विकसित सामाजिक पशु (Developed social animal) ही मानती है। जबकि जैन धर्म मानव को विवेक और संयम की शक्ति से युक्त मानता है। भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य का निःश्रेयम् उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक मांगों की संतुष्टि में ही है। वह मानव की भोग-लिप्सा की संतुष्टि को ही उसका चरम लक्ष्य घोषित कर देता है। यद्यपि वह एक आरोपित सामाजिकता के द्वारा मनुष्य की स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक वृत्तियों का नियमन करना अवश्य चाहता है, किंतु इस आरोपित सामाजिकता का परिणाम मात्र इतना ही होता है कि मनुष्य प्रत्यक्ष में शांत और सभ्य होकर भी परोक्ष में अशांत एवं उद्दीप्त बना रहता है और उन अवसरों की खोज करता है जब समाज की आंख बचाकर अथवा सामाजिक आदर्शों के नाम पर उसकी पाशविक वृत्तियों को छद्म रूप में खुलकर खेलने का अवसर मिले। भौतिकवाद मानव की पाशविक वृत्तियों के नियंत्रण का प्रयास तो करता है, किंतु वह उस दृष्टि का उन्मूलन नहीं करता है, जो कि इस पाशविक वृत्तियों का मूल उद्गम है। उसका प्रयास जड़ों को सींचकर शाखाओं के काटने का प्रयास है। वह रोग के कारणों को खोजकर उन्हें समाप्त नहीं करता है, अपितु मात्र रोग के लक्षणों को दबाने का प्रयास

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