Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 8
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-6 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-2 विकसित राष्ट्र यू.एस.ए, मानसिक तनावों एवं आपराधिक पवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान है, इससे सम्बंधित आंकड़े चौंकाने वाले हैं। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है - तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना। बरकत जो नहीं होती, नीयत की खराबी है। आज मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित सभ्यता के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक सहज, सरल एवं स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे छिन गई है, आज जीवन के हर क्षेत्र में कृत्रिमता और छद्मों का बाहुल्य है। मनुष्य आज न तो अपनी मूलवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधनया उदात्तीकरण कर पाया है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाए रखने के लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके भीतर उसका 'पशुत्व' कुलांचें भर रहा है, किंतु बाहर वह अपने को 'सभ्य' दिखाना चाहता है। अंदर वासना की उद्दाम ज्वालाएं और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानस की त्रासदी है, पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की दमित मूलप्रवृत्तियां और उनसे जन्य दोषों के कारण मानवता आज भी अभिशिप्त है, आज वह दोहरे संघर्ष से गुजर रही है - एक आंतरिक और दसराबाह्या आंतरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस तनावयुक्त है, विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण मानव-जीवन अशांत और अस्तव्यस्त। आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सांवेगिक असंतुलनों और मूल्य संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किंतु एक सार्थक सामंजस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षाभाव है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके हैं और नए मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्यरिक्तता की स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नए मूल्यों की प्रसवपीड़ा से गुजर रही है। आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है, उसके सामने दो ही विकल्प है - या तो पुनः अपने प्रकृत आदिम जीवन की ओरPage Navigation
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