Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 6
________________ स्वकथ्य जैन धर्म एवं साहित्य के इतिहास पर वैसे तो आज तक अनेक कृतियाँ प्रकाशित हुई है। फिर भी युगीन परिस्थितियों एवं तुलनात्मक ऐतिहासिक गवेषणा को दृष्टि में रखकर इस कृति का प्रणयन किया गया है। ___ इस सम्पूर्ण प्रयास में मेरा अपना कुछ भी नहीं है। सभी कुछ पं. दलसुखभई आदि गुरुजनों का दिया हुआ है। इसमें मैं अपनी मौलिकता का क्या करूँ? फिर इस ग्रन्थ में मैंने विभिन्न अवधारणाओं के ऐतिहासिक विकास क्रम को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। जैनदर्शन के अन्य ग्रन्थों में प्रायः इस दृष्टि का उतनी गम्भीरता से निर्वाह नहीं हुआ है यही इस कृति की विशेषता है। यदत्र सौष्ठवं किश्चिद् गुरुदेव मे नहि। .. यदत्रासोष्ठदं किञ्चित् तन्ममैव ते नहि // - सागरमल जैनPage Navigation
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