Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana Author(s): Shekharchandra Jain Publisher: Samanvay Prakashak View full book textPage 5
________________ स्वागत हुआ । चूकि यह पुस्तक गुजराती में होने से हिन्दी भाषी लोग उसके पांचन से वंचित रहे । पिछले एक वर्ष से यही विचार निरंतर उभरता रहता था कि एक ऐसी पुस्तक प्रस्तुत करुं जिसमें जैनधर्म के मुख्य सिद्धांत एवं उसकी आराधना पद्धति को सरल और संक्षिप्त ढंग से प्रस्तुत करूँ । सिद्धांत पर अनेक वृहद सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन लिखे गये हैं। पर मैंने उन्हीं विशेष सिद्धांतों की सरल ढंग से चर्चा की है। सिद्धांतपक्षकी आगम सम्भवता को बनाये रखकर उन्हें सही रुपसे समझाने के लिए धर्मकी क्रियाओं का भाषा की सरलता एवं वर्तमानयुग के साथ जोड़कर रखने का प्रयास किया है। इसी प्रकार आज के भौतिकवाद से आक्रांत, धर्मका ढकोसला माननेवालों को तथा क्रियाकांड के प्रति घृणा भाव रखनेवालों को वैज्ञानिकता यथार्थता एवं आवश्यकता को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । किसी भी धर्मका प्राथमिक उद्देश्य तो मानव को पूर्ण मानव बनाना है । इसी मानवता का चरमविका सकरते हुए वह स्वयं भगवान बनता है । इस प्रकार मानव से भगवान बनने का प्रयत्न ही धर्म की आराधना है। वैसे गुजगती पुस्तक के अनेक अंश इसमें प्रस्तुत किए हैं । मेरा आशय हिन्दी भाषी जैनबंधुओं के पास जैन धर्म के प्राथमिक सैद्धांतिक एवं क्रियात्मक तथ्यों को पहुँचाना ही है । यदि एक प्रतिशत लोग भी पूर्वाग्रह को छोड़, धर्म के अंतरंग भावों को समझें तो अपना परिश्रम सार्थक मानूंगा। भक्ष्याभक्ष्य को ढोंग माननेवाले रात्रि-भोजन के समर्थक या देव-शास्त्र गुरू के दर्शन वंदन को नकारने वालों को प्रेरणा मिल सके तो मैं अपने आपको धन्य मानूंगा। मेरा विश्वास ही नहीं दावा है कि जैनधर्म के सिद्धांतो को समझकर आराधना के माध्यम से जो इनपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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