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इतिहास
गया वे क्षत्रिय कहलाये । जिन्हें खेती, व्यापार, गोपालन आदि कार्यमें नियुक्त किया गया वे वैश्य कहलाये । और जो सेवावृत्ति करनेके योग्य समझे गये उन्हें शूद्र नाम दिया गया ।
भगवान ऋषभदेव के दो पत्नियाँ थी - एक का नाम सुनन्दा था और दूसरीका नन्दा । इनसे उनके सौ पुत्र और दो पुत्रियां हुई। बड़े पुत्रका नाम भरत था । यही भरत इस युगमें भारतवर्ष के प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए।
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एक दिन भगवान ऋषभदेव राजसिंहासनपर विराजमान थे राजसभा लगी हुई थी और नीलांजना नामकी अप्सरा नृत्य कर रही थी। अचानक नृत्य करते करते नीलाञ्जनाका शरीरपात हो गया इस आकस्मिक घटनासे भगवानका चित्त विरक्त हो उठा । तुरन्त सब पुत्रोको राज्यभार सौप कर उन्होने प्रव्रज्या ले ली और ह माह की समाधि लगाकर खड़े हो गये। उनकी देखादेखी और भी अनेक राजाओने दीक्षा ली । किन्तु वे भूख प्यासके कष्टको न सह सके और भ्रष्ट हो गये । छ माहके बाद जब भगवानकी समाि भंग हुई तो आहारके लिये उन्होने विहार किया । उनके प्रशान्त नग्न रूपको देखनेके लिये प्रजा उमड़ पड़ी। कोई उन्हें वस्त्र भ
करता था, कोई भूषण भेंट करता था, कोई हाथी घोड़े लेकर उनक सेवामें उपस्थित होता था । किन्तु उनको भिक्षा देनेकी विधि कोई नही जानता था। इस तरह घूमते-घूमते ६ माह और बीत गये ।
इसी तरह घूमते-घूमते एक दिन ऋषभदेव हस्तिनापुरमें ज पहुँचे । वहाँका राजा श्रेयांस बडा दानी था । उसने भगवान्का ७ सत्कार किया । आदरपूर्वक भगवानको प्रतिग्रह करके उच्चासनप बैठाया, उनके चरण धोये, पूजन की और फिर नमस्कार कर बोला - भगवन् ? यह इक्षुरस प्रासुक है, निर्दोष है इसे आप स्वी करें । तब भगवानने खडे होकर अपनी अञ्जलिमें रस लेकर पिया उस समय लोगों को जो आनन्द हुआ वह वर्णनातीत है । भगवा