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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जलाती है, इसी तरह क्रोधी व्यक्ति दूसरों का तो अहित करता ही है, खुद अपना भी अहित कर लेता है। यदि व्यवहार से कहें, तो दूसरों की गलती की सजा स्वयं भुगतना ही क्रोध है। यदि किसी पर अंगार फेंका जाए, तो दूसरे के जलने के साथ-साथ फेंकने वाले का हाथ भी जलता है। इसी प्रकार ही क्रोध-संज्ञा के स्वरूप को भी समझना चाहिए। उस पर विजय प्राप्त करने वाला क्षमा धर्म है।
उपासकाध्ययन में क्रोध को सब प्रकार की अग्नियों में प्रधान अग्नि कहा है, जिसको बुझाने के लिए यदि शीतल जल का प्रयोग किया जाए, तब भी वह शान्त न होकर प्रज्ज्वलित ही रहती है। प्रज्ज्वलित क्रोधाग्नि आत्मा के सामान्य, असामान्य गुणों का नाश कर देती है और नाना प्रकार से आकुलताओं को जन्म देकर प्राणियों के जीवन और जीविका को नष्ट कर देती है। क्रोधरूपी अग्नि देहधारियों को नरक में पहुँचा देती है। अनेक प्रकार से दुःखों को उत्पन्न करने में क्रोध सहायक है। क्रोधी मानव ‘पर का घात तो करता ही है, परन्तु साथ ही अपना घात स्वयं ही कर लेता है। क्रोध आत्मा की वैभाविक-अवस्था है, अतः वह पर के साथ स्व का भी घात करता है, आत्मिक-शांति भंग करता है।
क्रोध का मनोविकार यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता है। जैन एवं जैनेतर ग्रंथों में क्रोध-कषाय से सम्बन्धित विवेचन प्राप्त होता है।
गीता में श्रीकृष्ण ने काम, क्रोध तथा लोभ को आत्मा के मूल स्वभाव का नाश करने वाला नरक का द्वार बताया है। क्रोधवृत्ति से होने वाली हानि की चर्चा करते हुए कहा गया है -"क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से विवेक-शक्ति और आत्म-सजगता नष्ट हो जाती है, आत्मसजगता (स्मृति) के अभाव में विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक-शक्ति के नाश से सर्वनाश हो जाता है।"
565 कोपाग्निज्वलतिलोके महादुःखस्यकारणं।
स्वपर सौख्यमाहन्ति दुःखराति च जीवानाम् ।। महारिपुश्चकोपाग्नि जीवान्धरतिनार के।
राति बहुविधं दुःख नारकगतिरावासे।। - उपासकाध्ययन – 1/269-270 566 गीता, अध्याय 16, श्लोक 21 67 गीता, अध्याय 2, श्लोक 21
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