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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में 'संज्ञा' का अर्थ नाम है - " संज्ञा नामेत्युच्यते । व्यक्ति, वस्तु, स्थान एवं भाव को जो नाम दिया जाता है, अर्थात् जिस नाम से वह पहचाना जाता है, व्याकरण - शास्त्र की अपेक्षा से उसे ही संज्ञा कहते हैं । यद्यपि संज्ञा के कारण ही व्यक्ति की अपनी पहचान होती है और उसी पहचान के कारण ही वह विश्व में जाना जाता है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में संज्ञा शब्द इस अर्थ में गृहीत नहीं है।
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यदि संज्ञा की व्युत्पत्ति सम् + ज्ञान से मानें, तो वह विचार-विमर्श की प्रवृत्ति के रूप में सिद्ध होता है । तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख करते हुए, उसमें संज्ञा को मतिज्ञान का पर्यायवाची माना गया है। मनुष्य में ज्ञानावरणीय - कर्म के क्षयोपशम से, जो ज्ञान व विवेक की शक्ति प्रकट होती है, उसे भी संज्ञा कहा गया है। इसी आधार पर, हित की प्राप्ति और अहित का त्याग करने की क्षमता जिस जीव में होती है, उसे संज्ञी कहा जाता है । यहाँ नोइन्द्रियावरणीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए विवेक - सामर्थ्य को भी संज्ञा कहा गया है । विमर्श-रूप मन के अभाव अथवा अन्य इन्द्रियों के ज्ञान से युक्त, जीव असंज्ञी होते हैं, किन्तु प्रस्तुत - प्रसंग में संज्ञा का यह अर्थ भी सीमित है । व्यापक अर्थ में संज्ञा संसारी - जीवों के व्यवहार की प्रेरक दैहिक या चैतसिक - आन्तरिक - वृत्ति
है।
क्योंकि, जैनागमों में संज्ञा का एक अर्थ इच्छा या आकांक्षा {Desire} भी लिया गया है, फिर भी इच्छा, आकांक्षा तथा संज्ञा में अन्तर है। संज्ञा प्रसुप्त या अवचेतन में रही हुई इच्छा है। आहार आदि विषयों की अव्यक्त इच्छा को संज्ञा कहा गया है। यह प्रसुप्त चेतना वाले एकेन्द्रिय आदि में भी पाई जाती है। जैनदर्शन में जीव - वृत्ति { wants], क्षुधा {Appetite}, अभिलाषा Desire }, वासना ( Sex}, कामना {wish}, आशा {Expectation ], लोभ (Greed}, तृष्णा (Thirst}, आसक्ति {Attachment} और संकल्प (Will } - ये सभी संज्ञा के पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुए हैं, जिनका सामान्य अर्थ शरीर, इन्द्रियों और मन की अपने विषयों की चाह से है। प्रत्येक जीव- तत्त्व, चाहे वह एकेन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय, उसमें आहार आदि संज्ञाएँ अव्यक्त या व्यक्त रूप में अवश्य पाई जाती हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पशुजगत् तक प्राणी में जीववृत्ति के साथ-साथ क्षुधा का भी योग रहता है, लेकिन मानवीय स्तर पर तो संज्ञा के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं । इस स्तर पर अव्यक्त आकांक्षाएँ चेतना के
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