Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 576
________________ 570 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व और आत्मिक-आनन्द में क्या अन्तर है, इसको भी समझाने का प्रयत्न किया गया है। इस शोधप्रबंध का बारहवाँ अध्याय धर्म-संज्ञा से सम्बन्धित है। आत्मा की कर्मक्षय के निमित्त से होने वाली स्वभाव–परिणति धर्मसंज्ञा है। जैनदर्शन में स्व-स्वभाव में अवस्थिति और परपरिणति से निवृत्ति को ही धर्म-संज्ञा कहा गया है। प्रस्तुत शोधप्रबंध में धर्म के विभिन्न कार्य उसकी परिभाषाएँ एवं धर्मसंज्ञा का सम्यक स्वरूप क्या है- यह बताने का प्रयत्न किया गया है, साथ ही, धर्म की जीवन में क्या उपादेयता है, इस बात को समझाने का भी प्रयास किया गया है। धर्मसंज्ञा ही मोक्ष का सोपान किस रूप में है, उसे भी स्पष्ट किया है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध के तेरहवें अध्याय में हमने मोहसंज्ञा, शोकसंज्ञा और विचिकित्सासंज्ञा की चर्चा की है। यहाँ मोह का अर्थ सांसारिक-पदार्थ के प्रति ममत्व की वृत्ति है, मोह 'पर' में 'स्व' का आरोपण है और इसलिए वह मोक्ष में बाधक है। प्रस्तुत अध्याय में मोहसंज्ञा की विवेचना करते हुए यह भी बताने का प्रयास किया है कि मोह पर विजय कैसे प्राप्त की जाए। इसी प्रकार, इस अध्याय में शोकसंज्ञा की भी चर्चा की गई और उसे आर्त्तध्यान का ही रूप बताया गया है। इस शोक के साथ यह भी स्पष्ट किया गया है कि इसके क्या दुष्परिणाम होते हैं और उस पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है? इस प्रकार, इस अध्याय में विचिकित्सा संज्ञा अर्थात घृणा की वृत्ति की चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि यह वृत्ति किसके प्रति आवश्यक है और किसके प्रति अनावश्यक है। मुख्य रूप से हमारा प्रतिपाद्य यह है कि जहाँ से राग का जन्म होता है, वहाँ जुगुप्सा साधना का आवश्यक अंग है और जहाँ द्वेष का जन्म होता है, वहाँ जुगुप्सा अनावश्यक है। वस्तुतः, जुगुप्सा की वृत्ति हमें राग और द्वेष से मुक्ति दिलाती है और इस प्रकार वह हमारे आध्यात्मिक विकास में सहायक बनती है। इस शोधप्रबन्ध का चौदहवां अध्याय जैनधर्म में संज्ञाओं की अवधारणा का बौद्धधर्म में चैतसिकों की अवधारणा से तुलना से सम्बन्धित है। इसमें बौद्धदर्शन के बावन चैत्तसिकों के स्वरूप आदि को स्पष्ट करके . उनकी जैनदर्शन की संज्ञाओं के साथ तुलना की गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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