Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 575
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 569 हो और भौतिक-सुखों की प्राप्ति हो आदि की अभिलाषा लोकसंज्ञा है। उपनिषदों में एवं जैन-ग्रन्थ आचारांग, इसिभासियाइं आदि में लोकेषणा का उल्लेख हुआ है। हमारी दृष्टि में लोकेषणा का तात्पर्य लौकिक उपलब्धियों की आकांक्षा से है। इसके साथ ही, प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में लोकसंज्ञा की प्रासंगिकता पर विचार करने का प्रयास किया गया है, साथ ही, लोकसंज्ञा के दुष्परिणामों को भी स्पष्ट किया गया है। इसी अध्याय में लोकसंज्ञा के साथ-साथ ओघ संज्ञा की भी चर्चा की गई है। प्राणीमात्र में रहने वाली सामान्य अनुकरण की वृत्ति या सामुदायिकता की वृत्ति ओघसंज्ञा है। जो वृत्ति सम्पूर्ण जाति, वर्ग आदि में समान रूप से पाई जाती है, वह वृत्ति ओघसंज्ञा है। जैनाचार्यों ने जनसाधारण की वृत्ति के अनुसार आचरण करने को, अथवा लोक-प्रचलित व्यवहार का समर्थन करने को ओघसंज्ञा कहा है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के इस दसवें अध्याय में ओघसंज्ञा के अर्थ को विस्तारपूर्वक समझाने का प्रयत्न किया गया है। समाज एवं जनसामान्य के हित को ध्यान में रखकर लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा पर कैसे विजय प्राप्त की जाए- यह बताने का भी प्रयास किया गया है। इस शोधप्रबंध का ग्यारहवां अध्याय सुखसंज्ञा और दुःखसंज्ञा से सम्बन्धित है। सातावेदनीय-कर्म के उदय से होने वाली सुखद अनुभूति सुखसंज्ञा है और असातावेदनीय-कर्म के उदय से होने वाली दु:खद अनुभूति दुःखसंज्ञा है। आधुनिक मनोविज्ञान में यह भी बताया है कि सुख सदैव अनुकूल इसलिए होता है कि उसका जीवन-शक्ति को बनाए रखने की दृष्टि से मूल्य है और दुःख इसलिए प्रतिकूल होता है कि यह जीवनशक्ति का हृास करता है। यही सुख-दुःख का नियम समस्त व्यवहार का चालक है। जैन-दार्शनिक भी प्राणीय–व्यवहार के चालक के रूप में इसी सुख-दुख के नियम को स्वीकार करते हैं। अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण- यह प्राणीय-स्वभाव है। आचारांगसूत्र में कहा गया है -"सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है, प्रतिकूल है। सभी प्राणी सुख प्राप्त करना चाहते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के ग्यारहवें अध्याय में सुख और दुःख-संज्ञाओं का अर्थ तथा उनकी सापेक्षता को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है, साथ ही, सुख व्यवहार के प्रेरक के रूप में और दुःख व्यवहार के निवर्तक के रूप में किस प्रकार कार्य करते हैं- इस बात का भी उल्लेख करने का प्रयास किया गया है, साथ ही, सुखवाद की अवधारणा एवं भौतिक-सुख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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