Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 574
________________ 568 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व शोधप्रबंध का सप्तम अध्याय मान-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझना या अहंकार की मनोवृत्ति मानसंज्ञा है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है- "अभिमानी अहम् में चूर होकर दूसरों को परछाई के समान तुच्छ मानता है।" मानसंज्ञा विनयभाव और मैत्रीभाव का हनन करने वाली है। अहंकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-पुरुषार्थ का घातक है एवं विवेकरूपी चक्षु को नष्ट करने वाला है। इस प्रकार, प्रस्तुत शोधप्रबंन्ध के सप्तम अध्याय में मानसंज्ञा का स्वरूप, उसके भेद एवं उसके दुष्परिणामों की चर्चा की गई है, साथ ही, मानसंज्ञा या अहंकारवृत्ति पर विजय किस प्रकार से प्राप्त की जाए- यह बताने का प्रयास किया गया है। शोधप्रबंध का अष्टम अध्याय माया-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। मायासंज्ञा से तात्पर्य कपटवृत्ति से है। मुख्यतः, हृदय की वक्रता का नाम 'माया' है। जैसे बंजर भूमि में बोया बीज निष्फल जाता है, मलिन चादर पर चढ़ाया केसरिया रंग व्यर्थ हो जाता है, नमक लगे बर्तन में दूध विकृत हो जाता है; ठीक वैसे ही मायावी का किया गया धर्म-कार्य भी सफल नहीं हो पाता है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के अष्टम अध्याय में माया-संज्ञा अर्थात् कपटवृत्ति का स्वरूप, भेद एवं उसके दुष्परिणामों पर चर्चा की गई है, साथ ही, माया संज्ञा या कपटवृत्ति पर विजय किस प्रकार से प्राप्त की जाए- यह भी बताने का प्रयास किया गया है। शोधप्रबंध का नवम अध्याय लोभ-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। मोहनीय-कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसके वशीभूत होकर व्यक्ति पापों के दलदल में पैर रखने के लिए भी तैयार हो जाता है। स्थानांगसूत्र में लोभ-प्रवृत्ति को अमिषावर्त कहा गया है। जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। प्रस्तुत शोधप्रबंध के नवम अध्याय में लोभसंज्ञा से होने वाले दुष्परिणामों को भी बतलाने का प्रयास किया गया है, साथ ही, लोभवृत्ति पर विजय के क्या उपाय हो सकते हैंयह भी खोजने का प्रयत्न किया गया है। इस शोधप्रबंध का दशम अध्याय लोकसंज्ञा एवं ओघसंज्ञा से सम्बन्धित है। लोक-व्यवहार से चेतना का प्रभावित होना लोकसंज्ञा है, या ऐसी इच्छा करना, जैसे-संसार में मेरी पूछपरख हो, मेरी प्रतिष्ठा में वृद्धि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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