Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 578
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जाता है। वैसे तो सभी प्राणीय-जीवों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह - संज्ञाएँ होती ही हैं, किन्तु सबका एक समय में प्रबल होना आवश्यक नहीं है, किन्तु धर्म- संज्ञा को छोड़कर शेष सभी संज्ञाओं में राग - भाव या चैतसिक - आसक्ति ही प्रधान होती है, अतः वह राग-भाव, तृष्णा या आसक्ति कैसे छूटे - यह संज्ञा - मुक्ति का उपाय है। 572 प्रस्तुत शोधप्रबंध का सार यही बतलाना है कि संज्ञाओं को जानें, पहचानें और उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें। यह असंभव नहीं है कि हम संज्ञाओं से मुक्त न हों। आदमी का व्यक्तित्व परिवर्तनशील है, वह चेतना के स्तर पर संज्ञाओं के आवरण को तोड़ सकता है, अर्थात् इस प्रकार अनासक्त, वीततृष्णा या वीतराग जीवन - दृष्टि का विकास कर अपनी चेतना में विवेकशीलता का विकास कर सकता है। यदि यह सम्भव नहीं होता है, तो साधना की बात ही व्यर्थ हो जाएगी, धर्म - साधना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा तथा हमारे पुरुषार्थ की भी कोई सार्थकता नहीं होगी। जैन-धर्मदर्शन की यह मान्यता है - 'प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है।' परमात्मपद की यह प्राप्ति तृष्णा, राग-द्वेष एवं मोह पर विजय, अर्थात् संज्ञाओं पर विजय प्राप्ति के द्वारा ही संभव है। आत्मा परमात्मा बने, हमारी चेतना निराकुल हो सके- यह बताना ही इस शोधप्रबन्ध की उपादेयता है । Jain Education International -000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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