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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
जाता है। वैसे तो सभी प्राणीय-जीवों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह - संज्ञाएँ होती ही हैं, किन्तु सबका एक समय में प्रबल होना आवश्यक नहीं है, किन्तु धर्म- संज्ञा को छोड़कर शेष सभी संज्ञाओं में राग - भाव या चैतसिक - आसक्ति ही प्रधान होती है, अतः वह राग-भाव, तृष्णा या आसक्ति कैसे छूटे - यह संज्ञा - मुक्ति का उपाय है।
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प्रस्तुत शोधप्रबंध का सार यही बतलाना है कि संज्ञाओं को जानें, पहचानें और उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें। यह असंभव नहीं है कि हम संज्ञाओं से मुक्त न हों। आदमी का व्यक्तित्व परिवर्तनशील है, वह चेतना के स्तर पर संज्ञाओं के आवरण को तोड़ सकता है, अर्थात् इस प्रकार अनासक्त, वीततृष्णा या वीतराग जीवन - दृष्टि का विकास कर अपनी चेतना में विवेकशीलता का विकास कर सकता है। यदि यह सम्भव नहीं होता है, तो साधना की बात ही व्यर्थ हो जाएगी, धर्म - साधना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा तथा हमारे पुरुषार्थ की भी कोई सार्थकता नहीं होगी।
जैन-धर्मदर्शन की यह मान्यता है - 'प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है।' परमात्मपद की यह प्राप्ति तृष्णा, राग-द्वेष एवं मोह पर विजय, अर्थात् संज्ञाओं पर विजय प्राप्ति के द्वारा ही संभव है। आत्मा परमात्मा बने, हमारी चेतना निराकुल हो सके- यह बताना ही इस शोधप्रबन्ध की उपादेयता है ।
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