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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व शोधप्रबन्ध के पंद्रहवें अध्याय में जैनदर्शन की संज्ञा की अवधारणा और मनोवैज्ञानिक मैकड्यूगल की मूलवृत्ति की अवधारणा का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है और उनमें रही हुई समानता और भिन्नता को स्पष्ट किया गया है। शोधप्रबन्ध का अन्तिम सोलहवां अध्याय उपसंहार - रूप है। इसमें संज्ञा और संज्ञी में अन्तर संज्ञा विवेकशीलता Faculty of Reasoning} की चर्चा के साथ-साथ सभी अध्यायों के सारतत्त्व का उल्लेख किया गया है 1 वस्तुतः, हमारी चेतना पर धर्मसंज्ञा को छोड़कर संज्ञाओं का जो आधिपत्य है, उसे कैसे तोड़े ? चित्त को वासनामुक्त कैसे करें तथा संज्ञाओं के संस्कारों को कैसे मिटाएँ आज यह साधना के क्षेत्र का भी ज्वलंत प्रश्न है, इस प्रश्न के निराकरण के सम्यक् उपाय की खोज ही प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का मुख्य लक्ष्य रहा है। 571 आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि बीमारी एक होती है, परन्तु भेद के कारण उसके अनेक रूप हो जाते हैं, जैसे दर्द दर्द है, पर स्थानभेद के कारण सिर का दर्द, घुटने का दर्द, छाती का दर्द, कंधे का दर्द, गर्दन का दर्द आदि उसके अनेक रूप हो जाते हैं, इसी प्रकार, संज्ञा मूलतः दैहिक एवं चैतसिक-पर्यायरूप एक ही है, मात्र स्वरूप - भेद के आधार पर उसके अनेक प्रकार हो जाते हैं । आहार के प्रति जो इच्छा और तद्जन्य जो आसक्ति होती है, वह आहारसंज्ञा कहलाती है । चेतना में जब भय का संवेग उत्पन्न होता है और तदजन्य जो दैहिक - प्रतिक्रियाएं होती हैं, वे भय - संज्ञा कहलाती हैं तथा परिग्रह या. संचयन के प्रति जो आसक्ति या मूर्च्छा का भाव उत्पन्न होता है, वह परिग्रहसंज्ञा कहलाता है । वैसे देखा जाए, तो संज्ञा 'पर' के प्रति रागात्मक भाव ही है, परन्तु उसकी जिन-जिन दैहिक - प्रतिक्रियाओं के रूप में अभिव्यक्ति होती है, वे भिन्न-भिन्न संज्ञाओं का रूप ले लेती हैं। चेतना किसी समय किसी एक किसी एक विषय पर विरल होती है। देवताओं में परिग्रह - संज्ञा, तिर्यंच में मैथुन - संज्ञा प्रबल होती है। यह विभाजन Jain Education International विषय पर सघन होती है और नारकीय जीवों में भय - संज्ञा, आहार - संज्ञा और मनुष्य में प्रधानता की दृष्टि से किया For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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