Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 571
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 565 आवश्यक है, क्योंकि बिना आहार-विवेक के स्वास्थ्य और साधना- दोनों संभव नहीं हैं। प्रस्तुत द्वितीय अध्याय में हमने आहार की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए यह निर्धारित करने का प्रयत्न किया है कि मनुष्य में आहार का विवेक किस रूप में हो। आहारसंज्ञा मनुष्य में बैठी हुई पाशविक-प्रवृत्ति की परिचायक है, तो आहार-विवेक उस पाशविक-प्रवृत्ति को मानवीय-गुण प्रदान करता है। यही कारण है कि हमने द्वितीय अध्याय में जहाँ एक ओर आहार-संज्ञा के स्वरूप, उसकी उपस्थिति और अनिवार्यता की चर्चा की है, वहीं दूसरी ओर, आहार के विवेक की चर्चा भी की और बताया है कि जैन-परम्परा के अनुसार मनुष्य को क्या, कब और कितना खाना चाहिए, क्योंकि आहार के विवेक के अभाव में स्वयं व्यक्ति का स्वास्थ्य भी खतरे में पड़ जाएगा। वर्तमान युग में मनुष्य अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग हुआ है, अतः आहार-संज्ञा का तथ्यात्मक और मूल्यात्मक-विवेचन किया जाना चाहिए- यह युग की मांग है। प्रस्तुत शोधप्रबंध में हमने इसी दिशा में प्रयत्न किया है। इस शोधप्रबंध का तृतीय अध्याय भय-संज्ञा से सम्बन्धित है। मोहनीय-कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला आवेग भय है, उद्वेगों के मूल में भय की सत्ता रही हुई है। स्थानांगसूत्र के अनुसार, भय की उत्पत्ति के चार कारण निम्न हैं - 1. सत्त्वहीनता से, 2. भयमोहनीय कर्म के उदय से, 3. भयोत्पादक वचनों को सुनकर, ... 4. भय सम्बन्धी घटनाओं के चिन्तन से। यद्यपि भय-संज्ञा एक मनोभाव है, किन्तु उसके कारण आज सम्पूर्ण विश्व संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है। वर्तमान स्थिति को देखें, तो भय-संज्ञा या अंधविश्वास एक विकट रूप लिये हुए है। विश्व का प्रत्येक देश जितना प्रयास एवं अर्थव्यय मानव-कल्याण के लिए नहीं करता है, उतना वह सुरक्षा के लिए करता है, क्योंकि उसे अन्य शक्तिशाली देशों के आक्रमण का भय सतत बना रहता है। आज पारस्परिक-अविश्वास के कारण अस्त्र-शस्त्रों की अंधी दौड़ ने मानव को भयभीत बना दिया है। वर्तमान युग में वे मानवीय-कल्याण की बात छोड़कर सुरक्षा को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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