Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 568
________________ 562 1249 करें । परिलक्षित होती है । जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्व यहाँ वासना पर विवेक के अंकुश की बात स्पष्ट रूप से संज्ञा और संज्ञी में अंतर जैनदर्शन में संज्ञा के वासनात्मक पक्ष को संज्ञा और विवेकात्मक पक्ष को संज्ञी के रूप में विवेचित किया गया है। जैनदर्शन में संज्ञा और संज्ञी - ये दो शब्द स्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुए हैं। सामान्यतया, संज्ञी वह कहा जाता है, जिसमें विवेकात्मक - मन हो । इसी विवके - क्षमता के आधार पर जैन - आचार्यों ने संज्ञा और संज्ञी में अंतर किया है । 1250 जैन आचार्यों ने यह माना है कि संज्ञी प्राणी ही मोक्ष का अधिकारी होता है, जबकि मात्र संज्ञा होने पर किसी को मोक्ष का अधिकार प्राप्त हो - यह आवश्यक नहीं है। श्वेताम्बर - परंपरा में आहार - संज्ञा को छोडकर शेष सभी संज्ञाओं की उपस्थिति में मोक्ष का अभाव माना है। दिगंबरपरम्परा तो आहार-संज्ञा की उपस्थिति में भी मोक्ष की संभावना स्वीकार नहीं करती है। धर्म और ओघसंज्ञा को जब हम विवेकात्मक रूप से स्वीकार करते हैं, तब वह मोक्ष का साधन बनती है, लेकिन मोक्ष - अवस्था तो निश्चय में संज्ञा और संज्ञी से भिन्न है । मोक्ष - दशा में न संज्ञा रहती है और न संज्ञा का भाव रहता है।' ,1251 1249 - जैन - आचार्यों की दृष्टि में जहाँ 'संज्ञा' शब्द सामान्य जैविकप्रवृत्तियों का वाचक है, वहीं संज्ञी शब्द विवेकशील प्राणियों का ही वाचक है। जैन - आचार्यों ने यह माना है क़ि जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक हो, वही संज्ञी कहलाता है । ' इस आधार पर वे यह मानते हैं कि 1252 1250 1251 1252 अणासिता नाम महासियाला, पगब्भिणो तत्थ सयायकोवा । खज्जति तत्थ बहुकूरकम्मा, अदूरया संकलियाहिं बद्धा ।।20।। सदाजला नाम नदी भिदुग्गा, पविज्जला लोहविलीणतत्ता । जंसी भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगाइयाऽणुक्कमणं करेंति ।। 21 ।। एआई फासाइं फुसति बालं, निरंतरं तत्थ चिरट्टितीयं । ण हम्ममाणस्स तु होति ताणं, एगो सयं पच्चणुहोति दुक्खं । । 22 ।। Jain Education International तत्त्वार्थसूत्र -2/25 -सूत्रकृतांगसूत्र -2/5/20,21,22 संज्ञिनः समनस्काः । प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र 1965-1973 द्रव्यानुयोग, भाग-1, मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' अध्याय-9, पृ. 270 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580