Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 567
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 561 व्याख्यायित किया जाता है। उसके ये दोनों अर्थ जैनागमों में प्रतिपादित संज्ञा विवेकशीलता के रूप में - ___ जैसा कि हमने पूर्व में विवेचन किया है कि जैन–परम्परा में संज्ञा शब्द चेतना के वासनात्मक और विवेकात्मक- दोनों पक्षों के लिए प्रयोग हुआ है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक, सुख-दुःख, मोह, शोक और विचिकित्सा -ये सभी संज्ञाएं चेतना के वासनात्मक पक्ष से संबंधित हैं। लोकसंज्ञा भी सामान्य लौकिक-प्रवृत्तियों से जुड़ी होने से उसका संबंध भी हमारे जैविक-चेतना के वासनात्मकपक्ष से ही रहा हआ है। संज्ञाओं की जो चर्चा जैन परंपरा में मिलती है, उसमें ओघ और धर्म –ये दो संज्ञाएं ही ऐसी हैं, जिनका संबंध हम चेतना के विवेकात्मकपक्ष से जोड़ सकते हैं। यद्यपि हमने पूर्व में सूचित किया है कि यदि हम ओघसंज्ञा को सामान्य प्रवृत्ति के रूप में और धर्मसंज्ञा को प्राणी-स्वभाव के अर्थ में ग्रहण करते हैं, तो इनका संबंध भी चेतना के वासनात्मक-पक्ष से होगा, किन्तु ओघ का अर्थ विवेकपूर्ण आचरण और धर्म का अर्थ विभाव से स्वभाव में स्थित होने की प्रक्रिया मानें, तो इन दोनों का संबंध विवेक से मानना होगा। यद्यपि जैनदर्शन में संज्ञा को मूलतः जैविक वासनात्मक पहलू के रूप में विवेचित किया गया है, किन्तु जैनदर्शन की यह भी मान्यता रही है कि इन जैविक-वासनात्मक प्रवृत्तियों के ऊपर नियंत्रण या विजय प्राप्त करने और अपने सहज चेतन स्वभाव में अर्थात् ज्ञातादृष्ट्राभाव में स्थित रहने का सामर्थ्य मनुष्य में है। जैन-आचारशास्त्र की विशेषता यही है कि उसने सदैव वासना पर विवेक का अंकुश रखा है। प्रत्येक संज्ञा के विवेचन में हमने यह दिखाया है कि उन संज्ञाओं पर विजय कैसे प्राप्त करें। सामान्यतः, जो संज्ञाएँ जीवन-व्यवहार के वासनात्मक पक्ष की उद्दीपक हैं, उन पर तो नियंत्रण आवश्यक है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि संज्ञा अर्थात् अपनी विवेकशक्ति को क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चेतना के वासनात्मक-पक्ष में निवेशित न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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