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करें । परिलक्षित होती है ।
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्व
यहाँ वासना पर विवेक के अंकुश की बात स्पष्ट रूप से
संज्ञा और संज्ञी में अंतर
जैनदर्शन में संज्ञा के वासनात्मक पक्ष को संज्ञा और विवेकात्मक पक्ष को संज्ञी के रूप में विवेचित किया गया है। जैनदर्शन में संज्ञा और संज्ञी - ये दो शब्द स्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुए हैं। सामान्यतया, संज्ञी वह कहा जाता है, जिसमें विवेकात्मक - मन हो । इसी विवके - क्षमता के आधार पर जैन - आचार्यों ने संज्ञा और संज्ञी में अंतर किया है ।
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जैन आचार्यों ने यह माना है कि संज्ञी प्राणी ही मोक्ष का अधिकारी होता है, जबकि मात्र संज्ञा होने पर किसी को मोक्ष का अधिकार प्राप्त हो - यह आवश्यक नहीं है। श्वेताम्बर - परंपरा में आहार - संज्ञा को छोडकर शेष सभी संज्ञाओं की उपस्थिति में मोक्ष का अभाव माना है। दिगंबरपरम्परा तो आहार-संज्ञा की उपस्थिति में भी मोक्ष की संभावना स्वीकार नहीं करती है। धर्म और ओघसंज्ञा को जब हम विवेकात्मक रूप से स्वीकार करते हैं, तब वह मोक्ष का साधन बनती है, लेकिन मोक्ष - अवस्था तो निश्चय में संज्ञा और संज्ञी से भिन्न है । मोक्ष - दशा में न संज्ञा रहती है और न संज्ञा का भाव रहता है।'
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जैन - आचार्यों की दृष्टि में जहाँ 'संज्ञा' शब्द सामान्य जैविकप्रवृत्तियों का वाचक है, वहीं संज्ञी शब्द विवेकशील प्राणियों का ही वाचक है। जैन - आचार्यों ने यह माना है क़ि जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक हो, वही संज्ञी कहलाता है । ' इस आधार पर वे यह मानते हैं कि
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अणासिता नाम महासियाला, पगब्भिणो तत्थ सयायकोवा । खज्जति तत्थ बहुकूरकम्मा, अदूरया संकलियाहिं बद्धा ।।20।। सदाजला नाम नदी भिदुग्गा, पविज्जला लोहविलीणतत्ता । जंसी भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगाइयाऽणुक्कमणं करेंति ।। 21 ।। एआई फासाइं फुसति बालं, निरंतरं तत्थ चिरट्टितीयं । ण हम्ममाणस्स तु होति ताणं, एगो सयं पच्चणुहोति दुक्खं । । 22 ।।
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तत्त्वार्थसूत्र -2/25
-सूत्रकृतांगसूत्र -2/5/20,21,22
संज्ञिनः समनस्काः ।
प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र 1965-1973
द्रव्यानुयोग, भाग-1, मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' अध्याय-9, पृ. 270
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