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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
संज्ञा सामान्यतः संसार के सभी प्राणियों में पायी जाती है, किन्तु संज्ञी वे ही होते हैं, जो हेय, ज्ञेय और उपादेय की विवेक - क्षमता से युक्त होते हैं ।
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जैनदर्शन के अनुसार, सांसारिक - प्राणियों में उच्चस्तरीय पंचेन्द्रिय प्राणी और मनुष्य ही ऐसे हैं, जो संज्ञी - पद के अधिकारी हैं । यद्यपि नारकों और देवों में संज्ञीपना माना गया है, ' किन्तु वे दोनों की भोगभूमियाँ हैं । यहाँ वे केवल अपने शुभाशुभ कर्मों का भोग करते हैं, उनमें त्याग - मार्ग या निवृत्ति - मार्ग में आगे बढ़ने की क्षमता नहीं होती । चाहे उनमें हेय, ज्ञेय या उपादेय का विवेक हो ( क्योंकि नरक में भी सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं), किन्तु न तो उनमें हेय का परित्याग करने की और न उपादेय को ग्रहण करने की क्षमता होती है और वह अपने जैविक - वृत्तियों से भिन्न जीवन जी सकते हैं। यद्यपि कुछ पशु, देव एवं नारक, संज्ञा और संज्ञी - दोनों हैं, फिर भी हेय का परित्याग और उपादेय का ग्रहण करने की शक्ति न होने के कारण वे उसी जीवन में मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं।
इस प्रकार, सामान्य रूप से हम कह सकते हैं कि सामान्यतया संज्ञाएँ प्राणीय-जीवन के वासनात्मक और जैविक-पक्ष को प्रस्तुत करती हैं, जबकि संज्ञा का भाव प्राणी के विवेकात्मक पक्ष को प्रस्तुत करता है । यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिए कि ज्ञानात्मक विवेक - क्षमता और आचरणात्मक-विवेक में अंतर है। ज्ञानात्मक - विवेक देव, नारक और पंचेन्द्रिय-तिर्यंच में भी होता है, किन्तु आचरणात्मक विवेक केवल मनुष्य में ही पाया जाता है, इसलिए मनुष्य में ज्ञानात्मक - विवेक और आचरणात्मक - विवके- दोनों की ही संभावना है। यद्यपि जैनदर्शन में तिर्यंच-पंचेन्द्रिय को भी संज्ञी कहा गया है, किन्तु उसमें आचरणात्मक विवेक-क्षमता सीमित होती है। परम्परागत मान्यता के अनुसार, वे केवल अंशतः ही श्रावक - व्रत का पालन कर सकते हैं । ज्ञातव्य है कि इस सम्बन्ध में आधुनिक 'जैव-वैज्ञानिकों और जैन - चिन्तकों में मतभेद हैं। उनमें ज्ञानात्मक - विवेक की संभावना है, किन्तु आचरणात्मक - विवेक की सीमित संभावना होने से वे भी मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं और इस दृष्टि से वे संज्ञी होते हुए संज्ञाओं पर पूर्णतः विजय पाने की शक्ति से रहित होते हैं । मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो संज्ञा पर अपने संज्ञीपन के द्वारा पूर्णतः विजय प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी हो सकता है।
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प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र 1968-1973
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