________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि संज्ञा प्रायः प्राणी के वासनात्मक जैविक-पक्ष को प्रस्तुत करती है, तो संज्ञीपना प्राणी के विवेकशील - पक्ष को प्रस्तुत करता है। संज्ञा सभी जीवों में पाई जाती है, किन्तु संज्ञीपना मात्र कुछ जीवों में ही होता है और उसमें भी हेय, ज्ञेय और उपादेय के विवेक के साथ हेय का पूर्णतया त्याग और उपादेय के ग्रहण की सामर्थ्य मात्र मनुष्य में ही है। मनुष्य संज्ञायुक्त भी है और संज्ञी भी है। वह अपने संज्ञीपन के द्वारा संज्ञाओं पर विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य रखता हैयही उसकी विशेषता है।
564
पंचेन्द्रिय जीवों में ये संज्ञाएं स्पष्टतः अनुभूत होती हैं और एकेन्द्रिय आदि जीवों में अव्यक्त रूप से होती हैं । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के प्रथम अध्ययन में संज्ञाओं के स्वरूप का विवेचन किया गया है ।
इस शोधप्रबन्ध का द्वितीय अध्याय आहारसंज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। क्षुधा - वेदनीयकर्म के उदय से आहार के पुद्गलों को ग्रहण करने की अभिलाषा आहारसंज्ञा है । स्थानांगसूत्र में इसकी उत्पत्ति के निम्न चार कारण बताए हैं
1. पेट के खाली होने से, अर्थात् शारीरिक संरचना के कारण आहार की आंकाक्षा होने पर,
2. क्षुधावेदनीय - कर्म के उदय से,
3. आहार सम्बन्धी चर्चा से,
4. आहार का चिन्तन करने से ।
यद्यपि भारतीय–संस्कृति धर्म और अध्यात्म - प्रधान है, किन्तु धर्म और अध्यात्म की साधना देह आश्रित है । भारतीय मनीषियों ने यह माना है कि धर्म-साधना के लिए शरीर आवश्यक है। बिना शरीर के साधना संभव नहीं है, किन्तु यह शरीर आहार - आश्रित है। आहार के बिना शरीर नहीं चल सकता, अतः शरीर के रक्षण और पोषण के निमित्त आहार को आवश्यक माना गया है, किन्तु भारतीय - चिंतकों का यह भी मानना है कि जीवन के लिए भोजन अपरिहार्य होते हुए भी स्वस्थ एवं संयमी जीवन के लिए आहार का विवेक आवश्यक है। जब तक जीवन है, तब तक आहार की आकांक्षा भी रही हुई है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि जो भी चाहा, या जब भी चाहा, खा लिया जाए। उसके लिए आहार का विवेक भी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org