Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 562
________________ 556 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व किया है, वह इससे भिन्न है। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्र की टीका में संज्ञा का अर्थ नाम या पहचान बताया गया है,1237 फिर भी प्रस्तुत प्रसंग में संज्ञा का यह अर्थ अभिप्रेत नहीं है। सामान्यतया, व्यक्ति के जीवन के अभिप्रेरक के रूप में संज्ञा को स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन में संज्ञा एक पारिभाषिक शब्द है। जैन-आचार्यों ने संज्ञा की परिभाषा इस प्रकार की है –“वेदनीय तथा मोहनीय-कर्मों के उदय से एवं ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय-कर्मों के क्षयोपशम से आहारादि के प्रति जो वासनात्मक-अभिरुचियाँ होती हैं तथा उचित या अनुचित की. विवेकात्मक-प्रवृत्ति होती है, वही संज्ञा है।-30 इस प्रकार, जैनदर्शन में संज्ञा शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। वेदनीय व मोहनीय-कर्म के उदय से आहार, भय, मैथुन आदि की जो अभिलाषा, अभिरुचि होती है, वह भी संज्ञा है, साथ ही, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से जो हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक जाग्रत होता है, वह विवेकात्मक-शक्ति भी संज्ञा कहलाती है। इस प्रकार, जैनदर्शन में संज्ञा शब्द का प्रयोग दो अर्थों में देखा जाता है -वासनात्मक एवं विवेकात्मक। जैनदर्शन में संज्ञाओं का जो चतुर्विध वर्गीकरण पाया जाता है, उसमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-संज्ञाएं समाहित हैं, यह संज्ञा का वासनात्मक पक्ष है। इसी प्रकार, क्रोध, मान, माया और लोभ -इन चार कषायों को उद्दीप्त करने वाली वृत्ति को भी संज्ञा कहा गया है, ये भी मानवीय व्यवहार के वासनात्मक-पक्ष से ही संबंधित हैं। इसी क्रम में, लौकिक-प्रवृत्तियां तथा सुख-दुःख आदि की अभिप्रेरक-वृत्तियाँ भी संज्ञा कही गई हैं, साथ ही, मोह, शोक, विचिकित्सा आदि को भी संज्ञा में समाहित किया गया है। ये सभी वासनात्मक पक्ष की परिचायक हैं। लोक-संज्ञा से प्राणी में जो लोक-परम्परा के अन्धानुकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है, वह भी संज्ञा कही जाती है, किन्तु जैनदर्शन में संज्ञाओं के इस वासनात्मक-पक्ष की अपेक्षा भी विवेकात्मक-पक्ष को अधिक महत्त्व दिया गया है। संज्ञाओं के षोडषविध वर्गीकरण में चौदह संज्ञाएं वासनात्मक-पक्ष को ही अभिप्रेरित करती हैं, पर ओघ और धर्म-संज्ञा ऐसी संज्ञाएं हैं, जो 1238 1237 संज्ञा नामेत्युच्यते। -तत्त्वार्थसूत्र – 2/24/181/10 भगवतीवृत्ति-6/161, उद्धृत-भगवई, खंड-2, आचार्य महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती लाडनूं, पृ. 382 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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