Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 543
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। प्रस्तुत शोधप्रबंध के नवम अध्याय में लोभसंज्ञा से होने वाले दुष्परिणामों को भी बतलाने का प्रयास किया गया है, साथ ही, लोभवृत्ति पर विजय के क्या उपाय हो सकते हैं, यह भी खोजने का प्रयत्न किया गया है I इस शोधप्रबंध का दशम अध्याय लोकसंज्ञा एवं ओघसंज्ञा से सम्बन्धित है। लोक- व्यवहार से चेतना का प्रभावित होना लोकसंज्ञा है, या ऐसी इच्छा करना, जैसे- संसार में मेरी पूछपरख हो, मेरी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो और भौतिक सुखों की प्राप्ति हो आदि की अभिलाषा लोकसंज्ञा है। उपनिषदों में एवं जैन - ग्रन्थ आचारांग, इसिभासियाइं आदि में लोकैषणा का उल्लेख हुआ है। हमारी दृष्टि में लौकेषणा का तात्पर्य लौकिक- उपलब्धियों की आकांक्षा से है। इसके साथ ही, प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में लोकसंज्ञा की प्रासंगिकता पर विचार करने का प्रयास किया गया है, साथ ही, लोकसंज्ञा के दुष्परिणामों को भी स्पष्ट किया गया है। इसी अध्याय में लोकसंज्ञा के साथ-साथ ओघसंज्ञा की भी चर्चा की गई है। प्राणीमात्र में रहने वाली सामान्य अनुकरण की वृत्ति या सामुदायिकता की वृत्ति ओघसंज्ञा है । जो वृत्ति सम्पूर्ण जाति, वर्ग आदि में समान रूप से पाई जाती है, वह वृत्ति ओघसंज्ञा है। जैनाचार्यों ने जनसाधारण की वृत्ति के अनुसार आचरण करने को, अथवा लोक- प्रचलित व्यवहार का समर्थन करने को ओघसंज्ञा कहा है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के इस दसवें अध्याय में ओघसंज्ञा के अर्थ को विस्तारपूर्वक समझाने का प्रयत्न किया गया है। समाज एवं जनसामान्य के हित को ध्यान में रखकर लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा पर कैसे विजय प्राप्त की जाए, यह बताने का भी प्रयास किया गया है I 537 इस शोधप्रबंध का ग्यारहवां अध्याय सुखसंज्ञा और दुःखसंज्ञा से सम्बन्धित है। सातावेदनीय - कर्म के उदय से होने वाली सुखद अनुभूति सुखसंज्ञा है और असातावेदनीय कर्म के उदय से होने वाली दुःखद अनुभूति दुःखसंज्ञा है । आधुनिक मनोविज्ञान में यह भी बताया है कि सुख सदैव अनुकूल इसलिए होता है कि उसका जीवन-शक्ति को बनाये रखने की दृष्टि से मूल्य है और दुःख इसलिए प्रतिकूल होता है कि यह जीवनशक्ति का ह्रास करता है । यही सुख - दुःख का नियम समस्त व्यवहार का चालक है। जैन - दार्शनिक भी प्राणीय - व्यवहार के चालक के रूप में इसी सुख - दुःख के नियम को स्वीकार करते हैं । अनुकूल के प्रति आकर्षण और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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