Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 513
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 507 विचिकित्सा पर विजय कैसे ? सजीव अथवा अजीव द्रव्यों के प्रति घृणा/ अरुचि को विचिकित्सा (जुगुप्सा) संज्ञा कहते हैं, जो मोहनीय-कर्म के कारण उत्पन्न होती है। जीव का देह के प्रति प्रगाढ़ आकर्षण होता है, उससे विमुक्ति पाना अति दुष्कर है, जब तक देह पर आसक्ति बनी रहेगी, तब तक राग और द्वेष की दृष्टि भी बनी रहेगी, व्यक्ति किसी से रागवश ममत्व और किसी से द्वेषवश घृणा करता रहेगा, अतः एक आध्यात्मिक- दृष्टि का विकास करके हम विचिकित्सा पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ___आध्यात्मिक-विकास के दसवें सोपान, जिसे पारिभाषिक शब्दावली में 'सूक्ष्मसम्पराय-गुणस्थान' कहा जाता है, उसके अनुसार, अन्य सभी कषायों के क्षय या उपशम हो जाने पर भी सूक्ष्म लोभकषाय का उदय रहता है और वह सूक्ष्म लोभ देह के प्रति आसक्ति-रूप होता है, अतः देहासक्ति से मुक्त होने के लिए 'अशुचि- भावना' का चिन्तन अवश्य करना चाहिए। स्वशरीर की अशुनिता (अपवित्रता) का चिन्तन करना अशुचि-भावना है। इस भावना के परिप्रेक्ष्य में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है -“यह शरीर अनित्य है, अशुचिरूप है और अशुचि से ही उत्पन्न हुआ है। 1203 इसी सम्बन्ध में प्रशमरति में आचार्य उमास्वाति ने भी कहा है -यह शरीर पवित्र को भी अपवित्र बनाता है, इसकी आदि एवं उत्तर-अवस्था अशुचिरूप है, अतः शारीरिक-अशुचिता का चिंतन करना चाहिए। 1204 ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार - मल्लिकुमारी (उन्नीसवें तीर्थंकर) ने शरीर की अशुचिता के माध्यम से विवाह करने के लिए आए हुए राजकुमारों को वैराग्यवासित किया था। 205 उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को रोगों एवं व्याधियों का घर कहा है। 1206 इस प्रकार, अशुचिता की भावना का प्रयोजन शरीर की अपवित्रता का बोध कराकर आत्मा को देह के ममत्व से मुक्त करना 1203 1204 1205 1206 इमं सरीरं अणिच्चं असुइं असुइसंभवं । - उत्तराध्ययनसूत्र, गाथा- 19/13 प्रशमरति, 155 ज्ञाताधर्मकथा, आठवाँ अध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र -10/27 एवं 19/14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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