Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 533
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 527 परिग्रह), संज्ञाओं के दशविध वर्गीकरण में नौ संज्ञाएँ (आहार आदि चार तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक) वासनारूप और ओघ विवेकरूप संज्ञा हैं। इसी प्रकार, संज्ञाओं के षोडषविध वर्गीकरण में- आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक, सुख, दुःख, मोह, शोक, विचिकित्सा -ये चौदह संज्ञाएँ वासनात्मक-पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसमें धर्म और ओघ विवेकात्मक-पक्ष की परिचायक हैं। ये दोनों संज्ञाएँ किसी-न-किसी रूप में दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती संक्षेप में, वासनात्मक-संज्ञाएँ भववृद्धि का कारण हैं विवेकात्मक-संज्ञाएँ संसार से विमुक्ति का कारण हैं। और संज्ञाओं के स्वरूप एवं उनके वासनात्मक एवं विवेकात्मक-पक्ष को लेकर जो प्रमुख चर्चा हमने पूर्व में की है, उसका सार निम्न है - जैनदर्शन में आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह नामक जिन चार संज्ञाओं का विवेचन मिलता है, वे संज्ञाएँ मूलतः व्यक्ति के वासनात्मक-जीवन की परिचायक हैं। 1224 मनोविज्ञान की भाषा में हम इन्हें मूलप्रवृत्ति भी कह सकते हैं, क्योंकि इनका आधार जैविक है। शरीरधारी सभी प्राणियों में इनका अस्तित्व माना गया है। जब इन चार संज्ञाओं में क्रोध, मान, माया और लोभ -इन चार संज्ञाओं को जोड़ दिया जाता है, तो ये. आठों ही मूलतः प्राणी की जैविक-वृत्ति की परिचायक ही लगती हैं। इस प्रकार, संज्ञाओं के चतुर्विध और दशविध -दोनों वर्गीकरणों में केवल लोक और ओघ-संज्ञा को छोड़ दें, तो शेष आठों संज्ञाएँ प्राणी की जैविक-मूलप्रवृत्तियों की ही परिचायक हैं। मात्र यही नहीं, इन दशविध संज्ञाओं में लोकसंज्ञा भी प्राणियों की सामान्य जैविक-प्रवृत्तियों की ही परिचायक है। इस प्रकार, संज्ञाओं के दशविध वर्गीकरण में नौ संज्ञाएँ मूलतः प्राणी के जैविक और वासनात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करती हैं। इनमें ओघसंज्ञा भी सामान्य व्यवहार की ही वाचक है, किन्तु ओघनियुक्ति2 आदि जैन-ग्रन्थों में ओघ शब्द का जो अर्थ दिया गया है, उससे इसे वासनात्मक न मानकर विवेकात्मक भी मानना पड़ता है। 1224 1225 1226 उपासकाध्ययनसूत्र, गाथा- 56-56 व्यक्तित्व का मनोविज्ञान, अरूणकुमार सिंह, आशीषकुमार सिंह, पृ. 191 ओघनियुक्ति-2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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