Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 538
________________ 532 जनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व आचरणात्मक विवेक में अंतर है। ज्ञानात्मक-विवेक देव, नारक और पंचेन्द्रिय-तिर्यंच में भी होता है, किन्तु आचरणात्मक विवेक केवल मनुष्य में ही पाया जाता है, इसलिए मनुष्य में ज्ञानात्मक-विवेक और आचरणात्मक-विवके-दोनों की ही संभावना है। यद्यपि जैनदर्शन में तिर्यंच पंचेन्द्रिय को भी संज्ञी कहा गया है, किन्तु उसमें आचरणात्मक विवेक-क्षमता सीमित होती है। परम्परागत मान्यता के अनुसार, वे केवल अंशतः ही श्रावक-व्रत का पालन कर सकते हैं। ज्ञातव्य है कि इस सम्बन्ध में आधुनिक जैव-वैज्ञानिकों और जैन-चिन्तकों में मतभेद हैं। उनमें ज्ञानात्मक-विवेक की संभावना है, किन्तु आचरणात्मक-विवेक की सीमित संभावना होने से वे भी मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं और इस दृष्टि से वे संज्ञी होते हुए संज्ञाओं पर पूर्णतः विजय पाने की शक्ति से रहित होते हैं। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो संज्ञा पर अपने संज्ञीपन के द्वारा पूर्णतः विजय प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि संज्ञा प्रायः प्राणी के वासनात्मक जैविक-पक्ष को प्रस्तुत करती है, तो संज्ञीपना प्राणी के विवेकशील-पक्ष को प्रस्तुत करता है। संज्ञा सभी जीवों में पाई जाती है, किन्तु संज्ञीपना मात्र कुछ जीवों में ही होता है और उसमें भी हेय, ज्ञेय और उपादेय के विवेक के साथ हेय का पूर्णतया त्याग और उपादेय के ग्रहण की सामर्थ्य मात्र मनुष्य में ही है। मनुष्य संज्ञायुक्त भी है और संज्ञी भी है। वह अपने संज्ञीपन के द्वारा संज्ञाओं पर विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य रखता है, यही उसकी विशेषता है। पंचेन्द्रिय जीवों में ये संज्ञाएं स्पष्टतः अनुभूत होती हैं और एकेन्द्रिय आदि जीवों में अव्यक्त रूप से होती हैं। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के प्रथम अध्ययन में संज्ञाओं के स्वरूप का विवेचन किया गया है। इस शोधप्रबन्ध का द्वितीय अध्याय आहारसंज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। क्षुधा-वेदनीयकर्म के उदय से आहार के पुद्गलों को ग्रहण करने की अभिलाषा आहार-संज्ञा है। स्थानांगसूत्र में इसकी उत्पत्ति के निम्न चार कारंण बताएं हैं - 1. पेट के खाली होने से, अर्थात् शारीरिक संरचना के कारण आहार की आंकाक्षा होने पर, 2. क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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