Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 535
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जैनदर्शन की यह मूलभूत मान्यता है कि जीव किसी भी अवस्था में हो, उसमें ज्ञान और दर्शन - पक्ष तो अंशतः सदैव उद्घाटित रहता ही है, अतः हम यह कह सकते हैं कि संज्ञाएँ किसी-न-किसी रूप में प्राणी के वासनात्मक और विवेकात्मक - दोनों पक्षों को अभिव्यंजित करती हैं। 1230 जैनदर्शन में संज्ञा को वासनात्मक और विवेकात्मक - दोनों माना गया है । संज्ञा के विवेकात्मक पक्ष को स्पष्ट करते हुए आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में कहा गया है - प्राणियों को इस बात का ज्ञान या विवेक ही नहीं होता है कि मैं कहाँ आया हूँ। आचारांगभाष्य में आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी यहाँ 'सण्णा' शब्द का अर्थ संज्ञान या विवेक ही किया है, 1231 किन्तु जब संज्ञा ( सण्णा) का सम्बन्ध आहार, भय, मैथुन या परिग्रह की वृत्ति से जोड़ा जाता है, तो उसे एक जैव - वृत्ति या जीवन के वासनात्मक पक्ष के रूप में भी व्याख्यायित किया जाता है। उसके ये दोनों अर्थ जैनागमों में प्रतिपादित हैं । संज्ञा विवेकशीलता के रूप में - जैसा कि हमने पूर्व में विवेचन किया है कि जैन - परम्परा में 'संज्ञा' शब्द चेतना के वासनात्मक और विवेकात्मक - दोनों पक्षों के लिए प्रयोग हुआ है । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक, सुख-दुःख, मोह, शोक और विचिकित्सा - ये सभी संज्ञाएं चेतना के वासनात्मक-पक्ष से संबंधित हैं । लोकसंज्ञा भी सामान्य लौकिक - प्रवृत्तियों से जुड़ी होने से उसका संबंध भी हमारे जैविक - चेतना के वासनात्मक - पक्ष से ही रहा हुआ है। 1230 1231 संज्ञाओं की जो चर्चा जैन - परंपरा में मिलती है, उसमें ओघ और धर्म – ये दो संज्ञाएं ही ऐसी हैं, जिनका संबंध हम चेतना के विवेकात्मकपक्ष से जोड़ सकते हैं । यद्यपि हमने पूर्व में सूचित किया है कि यदि हम ओघसंज्ञा को सामान्य प्रवृत्ति के रूप में और धर्मसंज्ञा को प्राणी - स्वभाव के अर्थ में ग्रहण करते हैं, तो इनका संबंध भी चेतना के वासनात्मक पक्ष से होगा, किन्तु ओघ का अर्थ विवेकपूर्ण आचरण और धर्म का अर्थ विभाव से 529 इहमेगेसि नो सण्णा भवइ, आचारांगसूत्र- 1/1/1 आचारांगभाष्य, आचार्य महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती संस्थान, लाडनूं, पृ. 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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