Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 511
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 505 प्रभावित करती है। पंडित आशाधरजी कहते हैं -क्रोध आदि के वश रत्नत्रयरूप धर्म में साधन, किन्तु स्वभाव से ही अपवित्र शरीर आदि में जो ग्लानि होती है, वह विचिकित्सा है। यह सम्यग्दर्शन आदि के प्रभाव में अरुचि-रूप होने से सम्यग्दर्शन का मल-दोष है।196 जो मोक्ष में बाधक बने, वह साधक के लिए सदा त्याज्य है, क्योंकि विचिकित्सा का भाव व्यक्ति को विचलित करता है, पर से जोड़ता है और समभाव में स्थिर नहीं होने देता। विचिकित्सा से चित्त विचलित हो जाता है और घृणादि के भाव मन के परिणामों को भी मलिन करते हैं, इसलिए जुगुप्सा अनावश्यक है। समयसार में कहा है -जो जीव सभी वस्तु-धर्मों में ग्लानि नहीं करता है, वह जीव निश्चय कर विचिकित्सादोषरहित सम्यग्दृष्टि जीव होता है। 197 विचिकित्सा के प्रकार मूलाचार ग्रंथ में विचिकित्सा के दो प्रकार बताए गए हैं - 1. द्रव्यविचिकित्सा, 2. भावविचिकित्सा1198 1. द्रव्यविचिकित्सा “साधओं के शरीर के विष्ठामल, मूत्र, कफ, नाक का मल, चाम, हाड़, रूधि, मांस, लोही, वमन, सर्व अंगों का मल, लार इत्यादि मलों को देखकर उनसे घृणा करना द्रव्य-विचिकित्सा है।"1199 द्रव्यविचिकित्सा से तात्पर्य, बाह्यवस्तु और वातावरण को देखकर जो घृणा का भाव उत्पन्न होता है, वह द्रव्यविचिकित्सा है। मलिन वस्त्र, 1196 का 1198 धर्मामृत, आनागार, द्वितीयोध्याय, श्लोक 79 जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेव धम्माण। सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो।। – समयसार, गाथा 231 विदिगिच्छा वि य दुविहा दब्वे भावे य होइ णायव्वा। - मूलाचार, गाथा 252 उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंघाणयं च चम्मट्ठी। पूयं च ममसोणिदवंतं जल्लादि साधूणं।वही, गाथा 253 1199 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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