Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 527
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 521 हैं, सुख प्रिय" । 1218 ये आकर्षण और विकर्षण के भाव ही जैनदर्शन में राग और द्वेष के तत्त्वों के रूप में वर्णित हैं।1219 संवेगों में इन्हें स्नेह और घृणा के भाव कहा गया है। शिशुरक्षा आदि की प्रवृत्ति भी कहीं-न-कहीं रागजन्य है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैनदर्शन में जो संज्ञाओं का विवेचन है, वह आधुनिक मनोविज्ञान की मूलप्रवृत्तियों और स्थाई भावों की अवधारणा के साथ बहुत कुछ समरूपता रखता है। आधुनिक मनोविज्ञान मूलप्रवृत्तियों को जन्मना मानता है। जैनदर्शन के अनुसार भी ये पूर्वकर्मजन्य होने के कारण इन्हें जन्मना माना जा सकता है, फिर भी जैनदर्शन में धर्म और ओघ -ये दो संज्ञाएं आधुनिक मनोविज्ञान से भिन्न ही हैं। यद्यपि धर्म का तात्पर्य वस्तुस्वभाव मानने पर उसे किसी रूप से आधुनिक मनोविज्ञान के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है, फिर भी दोनों में बहुत-कुछ अन्तर है, क्योंकि आधुनिक-मनोविज्ञान अपने को प्राणीय-व्यवहार तक सीमित रखता है, जबकि जैनदर्शन प्राणीय-व्यवहार के पीछे दैहिक और चैतसिक -दोनों बातों को स्वीकार करता है, फिर भी लोकोत्तर-जीवन या मोक्ष की बात करता है। जैनदर्शन में इन संज्ञाओं का आधार न केवल जैववृत्ति है, अपितु उसके पीछे कर्मजन्य भौतिक-पक्ष एवं आध्यात्मिक-पक्ष भी रहा हुआ है। आधुनिक-मनोविज्ञान वस्तुतः प्राणी-व्यवहार का विज्ञान है, अतः वह अपने को प्राणी-व्यवहार की व्याख्या तक ही सीमित रखता है, परन्तु जैनदर्शन धर्म- आधारित है, इसलिए वह प्राणी-व्यवहार के पीछे एक आध्यात्मिक-दृष्टि को भी मानकर चलता है। आधुनिक मनोविज्ञान केवल, व्यवहार क्या है और कैसा है ? तक ही अपने आपको सीमित करता है; जबकि जैनदर्शन, प्राणीव्यवहार ऐसा क्यों है और उसे कैसा होना चाहिए ? इन पहलुओं को लेकर सूक्ष्मता से विचार करता है। व्यवहार के कारण की खोज और जीवन-लक्ष्य का निर्धारण -यह आधुनिक- मनोविज्ञान से जैनदर्शन की भिन्नता को सूचित करता है। 1218 आचारांगसूत्र- 1/4/2 1219 उत्तराध्ययनसूत्र- 32/7 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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