Book Title: Jain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 483
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 477 प्रमुख कारण है, क्योंकि मोह सहित रागद्वेष का समावेश भी अविद्या में हो जाता है। न्यायदर्शन में जैनदर्शन के समान बन्धन के मूलभूत तीन कारण माने हैं- राग,द्वेष और मोह। राग के भीतर काम, मत्सर, स्पृहा, तृष्णा, लोभ, माया तथा दम्भ का समावेश होता है तथा द्वेष में क्रोध, ईर्ष्या, असूया, द्रोह (हिंसा) तथा अमर्ष का समावेश होता है। मोह में मिथ्याज्ञान, संशय, मान और प्रमाद होते हैं, क्योंकि राग-द्वेष और मोह अंज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं। 1130 उपर्युक्त विवेचन को सारांश रूप में कहें, तो लगभग सभी धर्मदर्शनों में कर्मबन्ध या दुःख का मूल कारण मोह ही माना है। 2. दुःखों का मूल मोह है 'ईसिभासियाइं में दुःखों का मूल कारण मोह को बताया है। 1131 वस्तुतः, मोहनीय-कर्म को आत्मा का 'अरि (शत्रु) कहा है, क्योंकि वह समस्त दुःखों की प्राप्ति में निमित्त कारण है। मोहनीय-कर्म के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति करते हुए नहीं पाए जाते हैं। मोह केन्द्रीय कर्म है और शेष कर्म उसके अधीन हैं। यद्यपि मोहनीय-कर्म की सत्ता नष्ट होने पर भी अघाती-कर्मों की सत्ता रहती है, फिर भी ऐसा इसलिए कहा जाता है कि मोहनीय के नष्ट होते ही जन्म-मरणादि से घिरे हुए दुःखरूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्यता उन अघाती-कर्मों में नहीं रहती है। आयुष्यकर्म की समाप्ति होने पर शेष रहे तीन अघाती कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। 1132 इसी कारण से, मोहकर्म को सभी कर्मों का राजा कहा गया है। दशाश्रुतस्कंध में कहा है – जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचिए, वह हरा-भरा नहीं होता, उसी प्रकार मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर से हरे-भरे नहीं होते।1133 इसिभासियाइं में कहा है - मूल को सींचने पर ही फल लगते हैं। मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट 1130 नीतिशास्त्र, पृ. 63 1131 1132 मोह मूलाणि दुक्खाणि। - इसिभासियाइं-2/7 1) धवला- 1, 1, 1/43 2) कर्मवाद, पृ. 60 सुक्कमूले जधा रूक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति। एवं कम्मा न रोहति, मोहविज्जे खजं गते।। - दशाश्रुतस्कंध- 5/1 1133 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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