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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अध्याय-7
मान (अहंकार)-संज्ञा Instinct of Pride}
जैन-ग्रंथों में.संज्ञाओं का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है। सामान्यतया, संज्ञाओं के चतुर्विध वर्गीकरण 61, दशविध वर्गीकरण 652 और षोडषविध वर्गीकरण मिलते हैं। चतुर्विध वर्गीकरण में मुख्य रूप से उन संज्ञाओं का विवेचन है, जो संसारी-जीवों में मुख्यतया पाई जाती हैं। चार मूल संज्ञाएं - आहारादि तो शरीर-धर्म होने से केवली को छोड़कर . सभी में पाई जाती हैं। दशविध वर्गीकरण में चार मूल संज्ञाएं, चार कषायक्रोध, मान, माया, लोभ तथा लोक और ओघ- ये संज्ञाएं भी प्रायः दसवें गुणस्थान के पूर्व के सभी जीवों में पाई जाती हैं। इन दस संज्ञाओं में कषायरूप जो चार संज्ञाएं हैं, उनमें क्रोध-संज्ञा के बाद मान-संज्ञा का स्थान आता है। आगे की विवेचना में हम मान-संज्ञा की विस्तृत चर्चा करेंगे।
'मान' एक ऐसा मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझने से उत्पन्न होता है। सूत्रकृतांग 654 में कहा गया है -"अभिमानी अहं में चूर होकर दूसरों को परछाई के समान तुच्छ मानता है।" डॉ. सागरमल जैन के अनुसार- मनुष्य में स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति है ही, परन्तु जब स्वाभिमान की वृत्ति दम्भ या प्रदर्शन का रूप ले लेती है, तब मनुष्य अपने गुणों एवं योग्यताओं को बढ़े-चढ़े रूप में प्रदर्शित करता है और इस प्रकार उसके अन्तःकरण में मानवृत्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है।
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समवायांग - 4/4 652 प्रज्ञापनासूत्र, पद-8 653 क) अभिधान राजेन्द्र, खण्ड - 7, पृ. 301
ख) आचारांगसूत्र - 1/2 24 अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं – सूत्रकृतांगसूत्र, अ 13, गाथा 8 .
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