Book Title: Jain Darshan me Nayvad
Author(s): Sukhnandan Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ आमुख नयवाद का जैनदर्शन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनेकान्त तथा स्यावाद के सिद्धान्तों का विवेचन इसी के साथ किया जाता है। आधुनिक युग में परस्पर विरोधी विचारों के द्वारा भिन्न-भिन्न वाद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में एक दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं, उनमें परस्पर कोई समन्वय स्थापित नहीं हो पा रहा है। ऐसी परिस्थिति में जैनदर्शन का स्याद्वाद तथा नयवाद का सिद्धान्त परस्पर विरोधी विचारों के समन्वय का सिद्धान्त हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। स्यावाद तथा नयवाद का मूलतत्त्व यही है कि जीवन में कई प्रकार के विचार जो एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, उनका समन्वय आधुनिक जीवन की एक बहुत बड़ी आवश्यकता है। जैनदर्शन का नयवाद तथा स्याद्वाद इस दिशा में एक समर्थ दृष्टि देता है। इसलिए इसका अध्ययन आधुनिक जगत् में और अधिक आवश्यक हो जाता है। जैनदर्शन के संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा बाद के अन्य सभी मूल ग्रन्थों में नय का विवेचन किया है। वास्तव में नयवाद के विवेचन के बिना जैन सिद्धान्तों की व्याख्या की ही नहीं जा. सकती। - जैन सिद्धान्त की मूल मान्यता है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और इन अनन्तं धर्मों का विवेचन या अधिगम प्रमाण तथा नय के द्वारा किया जाता है। प्रमाण वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को ग्रहण करता है तथा नय वस्तु के एक देश को ग्रहण करता है। इसी आधार पर प्रमाण सप्तभंगी का भी विवेचन किया जाता है। नय का सामान्य अर्थ है-ज्ञाता अर्थात् जानने वाले का अभिप्राय। ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष नय है जो प्रमाण द्वारा जानी गई वस्तु के एक सात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 300