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मुझे इस कार्य में यथोचित मार्ग दर्शन और प्रोत्साहन मिलता रहा है तदर्थ मैं उनके प्रति श्रद्धावनत हूँ। अन्त में अपनी सहधर्मिणी कपूरी देवी- जो मुझे गार्हस्थ्य चिन्ताओं से मुक्त रखकर जैनदर्शन के इस गूढ विषय के लेखन में निरन्तर सहयोग देती रहींके प्रति आभारी हूँ।
-सुखनन्दन जैन
पुनश्च भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली के प्रबन्धन्यासी साहू अखिलेश जैन के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने जिनशासन प्रभावनार्थ पूज्य पिताजी की इस कृति को भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशन की स्वीकृति दी। साथ ही मुख्य प्रकाशन अधिकारी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन का विशेष आभारी हूँ कि उन्होंने इसके संशोधन-मुद्रण-प्रकाशन में पूरा-पूरा सहयोग प्रदान किया। प्रो. राजाराम जैन-जिन्होंने पिताजी के इस कृतित्व के विषय-गाम्भीर्य को देखकर ज्ञानपीठ जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से प्रकाशित करने की प्रेरणा दी, श्री राकेश जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य (भारतीय ज्ञानपीठ), जिन्होंने पाण्डुलिपि को आद्योपान्त पढ़कर उसमें यथावश्यक संशोधन कर उसे सुपाठ्य बनाया तथा डॉ. वीरसागर जैन, अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री, राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नयी दिल्ली के मार्गदर्शन का विशेष लाभ प्राप्त हुआ। मैं इन सभी विद्वज्जनों के प्रति असीम आभार व्यक्त करता हूँ।
पूज्य पिताश्री डॉ. सुखनन्दन जैन द्वारा सन् 1977 में जैनदर्शन के इस अनिवार्य विषय 'जैनदर्शन में नयवाद' पर लिखे गये शोध प्रबन्ध को पुस्तक रूप में प्रकाशित होता देखकर हम समस्त परिवार उनके प्रति श्रद्धावनत हैं।
-स्वराज जैन
महावीर जयन्ती 28 मार्च, 2010
दस
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