Book Title: Jain Darshan ke Navtattva
Author(s): Dharmashilashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 7
________________ प्राक्कथन जैनागम साहित्य जैन संस्कृति की अक्षय निधि तो है ही, साथ ही वह भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अमूल्य कोष भी है, क्योंकि जैन संस्कृति के अभ्यास के बिना भारतीय संस्कृति का सर्वांगीण अभ्यास हो ही नहीं सकता । प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध जैनागम में तथा संस्कृत, प्राकृत और अन्य जैन साहित्य में नवतत्त्व विषयक उपलब्ध जैन सामग्री को एकत्रित करने की और नवतत्त्वों के विभिन्न रूपों को दिग्दर्शित करने का ही एक प्रयत्न है । सुख की प्राप्ति, जीवन के उत्कर्ष और विश्वशांति के लिए नवतत्त्वों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है । 'संस्कृत ग्रंथांतर्गत जैन दर्शन के नवतत्त्व' यह मेरे अभ्यास का और संशोधन का विषय है । इन नवतत्त्वों की जानकारी और उसका प्राथमिक स्वरूप निम्नलिखित संस्कृत ग्रंथों में मिलता है । उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र, उसपर लिखा हुआ सिद्धसेनगणि का स्वोपज्ञभाष्य और भट्टाकलंकदेव का तत्त्वार्थराजवार्तिक संग्रह भाग 1-2 3-4 ये ही प्रमाणभूत ग्रंथ हैं । इनके साथ ही 1) कर्मप्रकृति-यशोविजयजी, 2) मलयगिरि टीका, गणधरवाद-जिनभद्रगणि, गोमट, सार-नेमिचंद्राचार्य, नवप्रकरणम्-देवगुणाचार्य, नवतत्त्व साहित्य-3) पंचास्तिकाय टीकाअमृतचंद्र सूरि, 4) पंचास्तिकाय टीका (भाग 1, 2)-बौ० ब्र0 शीतलप्रसादजी, 5) प्रमाणमीमांसा-हेमचन्द्राचार्य, 6) प्रशमरतिप्रकरणम् - उमास्वाति, 7) योगशास्त्र-हेमचंद्राचार्य, 2) विशेषावश्यक भाष्य पर अभयदेवसूरि टीका, 11) सर्वदर्शनसंग्रह-माधवाचार्य, 12) सर्वार्थसिद्धिपूज्यपादाचार्य, 13) स्याद्वादमंजरी-हेमचन्द्राचार्य, 14) भगवतीसूत्र-अभयदेवसूरि टीका । इन ग्रंथों का ही मैंने अधिक आधार ग्रहण किया है । साथ ही कुछ स्थानों पर प्राकृत, मराठी और हिंदी ग्रंथों का भी आधार लिया है । कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, समयसार, नियमसार आदि ग्रन्थों, नेमिचंद्राचार्य कृत बृहत्काव्यसंग्रह, कर्मग्रंथ (भाग 1,2,3,4), सुत्तागमे (भाग 9, 2) आदि जैन आगम ग्रंथों में भी नवतत्त्वों का विवेचन मिलता है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध जैन तत्त्वज्ञान में प्रतिपादित किए हुए नवतत्त्वों के ज्ञान को प्रकाश में लाने का मेरा एक नम्र प्रयत्न है । यहाँ मैं यह भी स्पष्ट करना चाहती हूँ कि हिन्दीभाषी लोगों को इन नवतत्त्वों का ज्ञान हो और उन्हें मुक्ति के मार्ग का आकलन हो, यही मेरा मुख्य उद्देश्य है । इसलिए इस मराठी शोध-प्रबन्ध का हिन्दी में अनुवाद किया । इसका गुजराती अनुवाद भी हुआ है। मेरे निराश मन को पुनः आशा के उज्ज्वल किरण देनेवाले राष्ट्रसंत आचार्य सम्राट 1008 श्री आनंदऋषिजी म0 की मैं अतीव ऋणी हूँ जिनके मंगल आशीर्वाद मुझे हमेशा मिलते रहे, उन पूज्य गुरुदेव आत्मार्थीजी श्री मोहनऋषिजी म0 की भी मैं मनःपूर्वक ऋणि हूं । पूज्य गुरुदेव प्रवर्तक श्री विनयऋषिजी म0 की प्रेरणा मुझे हमेशा मिलती रही, इसलिए उनके विषय में कृतज्ञता व्यक्त किए बिना मैं रह ही नहीं सकती ।। आचार्य सम्राट पू0 1008 देवेन्द्रमुनीजी म0 ने भी शोधप्रबंध लिखने में संपूर्ण सहयोग दिया इसलिये मै उनकी भी ऋणी हूँ । जिनसे मुझे हमेशा स्नेह और सहकार्य प्राप्त होता रहा ऐसे अत्यंत विशाल अंतःकरण वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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