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दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी
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आप हो जाता है । अभ्युदय उनका साध्य नहीं, केवल जीवन निर्वाह का साधन मात्र रहा है। मार्क्स जैसे व्यक्ति, जो केवल बाहरी परिवर्तन को ही साध्य मानकर चले, उनका परिवर्तन सम्बन्धी दृष्टिकोण भिन्न है । जन दृष्टि के अनुसार बाहरी परिवर्तन से क्वचित् आंतरिक परिवर्तन सुलभ हो सकता है, किन्तु उससे आत्म- मुक्ति का द्वार नहीं खुलता, इसलिए वह मोक्ष के लिए मूल्यवान् नहीं है ।
पलायनवाद
कुछ पश्चिमी विचारकों ने भारतीय दर्शन पर यह आरोप लगाया है कि वह पलायनवादी है । कुछ वैदिक विद्वानों ने श्रमण दर्शन (जैन और बौद्ध) को इस आरोप से समारोपित किया है कि वह पलायनवादी है । इस आरोप को अस्वीकार करें या स्वीकार ? आरोप लगाने वालों का अपना दृष्टिकोण है और वह निराधार नहीं है। जीवन की तुला के दो पलड़े हैं । पश्चिमी विचारकों ने वर्तमान के पलड़े को अधिक मूल्य दिया है, इसलिए भविष्य के पलड़े को अधिक मूल्य देने वाले भारतीय दर्शन उनकी दृष्टि में पलायनवादी हैं । वैदिक विद्वानों ने गृहस्थाश्रम को अधिक मूल्य दिया है, इसलिए संन्यास को अधिक महत्त्व देने वाले श्रमण दर्शन उनकी दृष्टि में पलायनवादी हैं ।
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पलायन के दो कोण हैं - एक निराशा और दूसरा उत्कर्ष की उपलब्धि का प्रयत्न । भारतीय दर्शन निराशावादी नहीं हैं। वर्तमान जीवन के प्रति उनमें उत्कट आस्था है । इसके साक्ष्य हैं वे वैदिक सूक्त, जिनमें कामना की वेदी पर बैठा हुआ वर्तमान दसों अंगुलियों से समृद्धि को बटोर रहा है । वैदिक ऋषि के लिए संसार असार नहीं है। उसके मन में चिरायु होने की कामना है । वह गामात हैं— " जीवेम शरदः शतम् " - हम सौ वर्ष तक जिएँ । वह जीवन को मंगलमय जीना चाहता है इसलिए उसकी कामना है - " श्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतं, अदीनाः स्याम शरदः शतम् । "
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- " हम जीवन के अन्तिम क्षण तक सुनते रहें, बोलते रहें और पराक्रम की शिक्षा को प्रदीप्त करते रहें ।" उसकी सफलता की प्रार्थना का स्वर बहुत विराट् है । वह कहता है - " मह्यं नमंतां प्रदिशा चतस्रः ” – “मेरे लिए सभी दिशाएँ झुक जाएँ ।” उसकी भाषा असीम है । वह अल्प से तोष का अनुभव नहीं करता । उसका स्वर आशातीत है-.
"सत्यन्च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनन्च मे, विश्वन्च में महश्च मे क्रीड़ा च मे जातन्व मे जनिष्यमाणन्च मे सूक्तन्च मे सुकृतन्च मे यज्ञेन 'कल्पन्ताम् ।"
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