Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 266
________________ २५२ जैन दर्शन और संस्कृति आत्मा का अनुभव उन व्यक्तियों को होता है, जो ध्यान की गहराई में उतरते हैं। ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं। साधारण जन अनुगमन करते हैं। अनुगमन करने वालों में न अपना अनुभव होता है और न किसी सत्य का साक्षात्कार । इसलिए वे अपनी अनुभूति से नहीं चलते। वे दूसरों की अनुभूति को मानकर चलते हैं। धर्म के क्षेत्र में ऐसे लोगों की बहुलता होती है, तब अध्यात्म की ज्योति वाद-विवाद की राख से ढक जाती है। जैन आचार्यों ने समन्वय की धारा को प्रवाहित कर अध्यात्म की ज्योति को प्रज्वलित रखने का महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किया है। अनेकान्त की दृष्टि और स्यावाद की भाषा उन्हें प्राप्त थी। उन्होंने उसका उपयोग कर जनता को बताया कि अध्यात्म सबका एक है। यह दिखाई देने वाला भेद निरूपण का है। जितने निरूपण के प्रकार हैं, उतने ही नय (दृष्टिकोण) हैं। नय सापेक्ष (relative) होते हैं। आप एक नय को दूसरे नय से निरपेक्ष कर देखते हैं, तब दोनों नयों में विरोध प्रतिभासित होता है। दो नयों को समन्वित कर देखते हैं, तब वे दोनों एक-दूसरे के पूरक रूप में दिखाई देते हैं। सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, हरिभद्रसूरि, देवनंदी, हेमचंद्र, यशोविजयजी आदि मनीषियों ने सब दर्शनों का समन्वय कर अध्यात्म का निर्विवाद दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने जैन-शास्त्रों में चर्चित विषयों की सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों से तुलना की और उनमें चर्चित विषयों की जैन दर्शन से तुलना की। जैन आचार्यों ने अनेकान्तवादी होने के कारण दूसरे दर्शनों के दृष्टिकोण को मुक्त-भाव से अपनाया। इससे उनके दर्शन की आधारहीनता प्रकट नहीं होती, उनकी समन्वय-भावना ही प्रकट होती है। ___ हरिभद्रसूरि ने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में परस्पर-विरोधी प्रतिभासित होने वाले दार्शनिक तत्त्वों का अद्भुत समन्वय किया है। उनका वह ग्रन्थ समन्वय-ग्रन्थों में अद्वितीय है। उनका निश्चित सिद्धान्त था कि अध्यात्मचेता विद्वान् के लिए कोई भी सिद्धान्त अपना या पराया नहीं होता। जो सिद्धान्त प्रत्यक्ष और अनुमान से अबाधित होता है. वही उसका अपना सिद्धान्त होता है। यह दृष्टिकोण अध्यात्म के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण उन्मेष है। व्यवहार जगत् नाम और रूप से आक्रान्त होता है। अध्यात्म में गुण की ही प्रतिष्ठा होती है। आचार्य हेमचन्द्र ने सोमनाथ के मन्दिर में शिवलिंग के समक्ष चिन्तन की मुक्तधारा प्रवाहित की। उससे उनके प्रतिस्पर्धी भी नतमस्तक हो गए। उन्होंने कहा "भवबीजाकुर जनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णु वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥"

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