Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 284
________________ २७० वितण्डा विपाक - उदय वीतराग वैभाविक दशा वैभाविक परिवर्तन (पर्याय) व्यय व्युत्पत्तिमान शरीर- नाम - कर्म श्रमण जैन दर्शन और संस्कृति स्वपक्ष की स्थापना किये बिना, केवल पर-पक्ष का खण्डन करना वितण्डा है । जब कर्म उदय में आते हैं (अर्थात् भोगे जाते हैं), तब वे दो प्रकार से उदय में आते हैं— पहले प्रदेश-उदय अर्थात् सत्ता (अबाधा काल) की समाप्ति पर कर्मों का आत्म- प्रदेश में भोगा जाना। उसके पश्चात् वे विपाक - उदय में आते हैं, जिसमें वे अपना फल देते हैं । विशेष पुरुषार्थ के द्वारा विपाक-उदय न होने दिया जाय, तो बिना फल- भुक्ति भी आत्मा कर्म से मुक्त हो जाती है । क्षयोपशम में यही प्रक्रिया होती है । देखें, क्षयोपशम । जो राग और द्वेष – दोनों को समाप्त कर देते हैं, वे वीतराग कहलाते हैं । जो अपना स्वभाव न हो, अन्य निमित्तों के कारण जो दशा घटित हो, वह वैभाविक दशा है । जैसे—आत्मा का स्वभाव है-कर्म-मुक्त दशा और जन्म-मृत्यु या - संसार है वैभाविक दशा । जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त् से जीव में जो परिवर्तन होता है वह वैभाविक परिवर्तन कहलाता है । पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं । जैसे घट की उत्पत्ति होने पर पिण्ड रूप आकार का त्याग हो जाता है । देखें, उत्पाद । जिस शब्द की व्युत्पत्ति अर्थवान् हो, वह व्युत्पत्तिमान शब्द है । आठ कर्मों में एक है नाम-कर्म, जिसके उदय से जीव शरीर-सम्बन्धी विभिन्न सामग्री प्राप्त करता है । नाम-कर्म का एक भेद है 'शरीर- नाम - कर्म' जिससे शरीर प्राप्त होता है । उदाहरणार्थ, औदारिक शरीर नाम कर्म के उदय से औदारिक शरीर, वैकिय शरीर नाम कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर आदि । प्राचीन काल से भारत में प्रचलित संस्कृति और परम्परा जो वेदों में विश्वास नहीं रखती थी । ब्राह्मण

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