Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 285
________________ परिशिष्ट २७१ श्रेय संक्रमण संघात संज्ञा सत् (Reality) सन्तति संवर या वैदिक संस्कृति और परम्परा इसकी विरोधी थी। जैन और बौद्ध धर्म श्रमणों की देन है। अपना कल्याण या आत्म-कल्याण पुरुषार्थ आदि के द्वारा बंधे हुए कर्मों की प्रकृति समान जातीय प्रकृति में रूपान्तरित की जाती है। उसे संक्रमण कहते हैं। जैसे—'असात-वेदनीय' कर्म को ‘सात-वेदनीय' में रूपान्तरित कर देना। एकत्रीकरण, मिलन (association. fusion) : वृत्तियाँ (instincts) जो चेतना में आन्तरिक स्तर पर सदैव विद्यमान रहती हैं। सत् अस्तित्व का सूचक है। उत्पाद व्यय व ध्रौव्य इन तीनों की युगपत् अवस्थिति सत् है। जो वास्तविक है वह सत् है। जो अवास्तविक है वह असत् है। लम्बी श्रृंखला या प्रवाह रूप से चलने वाली परम्परा। कर्म-पुद्गलों का निरोध करने वाली आत्मा की अवस्था। सांसारिक दशा से मुक्त होने की स्थिति । देखें, अपर्यवसित । जिसके “प्रदेश" होते हैं, वे सप्रदेशी कहलाता है। देखें, प्रदेश। काल का सूक्ष्तम अविभागी (अविभाज्य) अंश "समय" कहलाता है। असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। देखें, आवलिका। मनुष्य-लोक। लोक के जिस हिस्से में व्यावहारिक काल (दिन, रात आदि) होता है, वह क्षेत्र समय-क्षेत्र कहलाता है। बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित आर्य-सत्यों में दूसरा । जिससे लक्ष्य प्राप्त किया जाता है। जिसे प्रापत करना है, वह लक्ष्य । परमाणुओं के एकीभाव को स्कन्ध कहते हैं। दो परमाणुओं के मिलने से बनने वाला स्कन्ध द्वि-प्रदेशी संसार-मोक्ष सपर्यवसित सप्रदेशी समय समय-क्षेत्र समुदाय साधन साध्य स्कन्ध

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