Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 283
________________ परिशिष्ट रूपी लब्धि-वीर्य लेश्या लोकवाद लोक-संज्ञा लोकायत मत ' वचन- गुप्ति वस्तु- वृत्त वाद ~ विजातीय सम्बन्ध २६९ के लिए करता है, उसके साथ यह तुलनीय होता है । एक रज्जू के असंख्यात योजन होते हैं । मूर्त। जिस पदार्थ में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श हो, वह रूपी और न हो, वह अरूपी कहलाता है। पुद्गल द्रव्य रूपी है, शेष पाँच द्रव्य अरूपी हैं । वीर्य का अर्थ है- आत्म-शक्ति । अन्तराय कर्म के द्वारा इसका निरोध होता है । जब अन्तराय-कर्म का विलय (आंशिक) किया जाता है, तब भीतर की शक्ति प्रकट हो सकती है । देखें, करण - वीर्य । आत्मा के वे परिणाम जो विशेष प्रकार के रंगीन पुद्गलों के प्रभाव से बनते हैं । लेश्या का शुभत्व और अशुभत्व रंग पर आधारित है । कृष्ण (काला), नील और कापोत (कबूतरी) रंग अशुभ लेश्या को उत्पन्न करते हैं, जबकि तेजस (लाल), पद्म (पीला) और शुक्ल (सफेद) रंग शुभ लेश्या को उत्पन्न करते हैं I जो लोक— सभी द्रव्यों के समूह रूप विश्व की वास्तविक सत्ता — को शाश्वत माने, वह सिद्धान्त । लौकिक कल्पनाएं अथवा व्यक्त चेतना या विशेष उपयोग । अथात् विशेष अवबोध को लोक-संज्ञा कहते हैं, जिसका तात्पर्य हैं विभागात्मक ज्ञान — इन्द्रिय ज्ञान और मानस ज्ञान । नास्तिक दर्शन की एक विचारधारा जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करती हैं । असत्य भाषण आदि से निवृत्त होना अथवा मौन धारण करना वचनगुप्ति है । वस्तु के गुण-धर्म या स्वभाव, लक्षण आदि । हार-जीत के अभिप्राय से की गई किसी विषय सम्बन्धी चर्चा वाद कहलाता है । आत्मा और कर्म (पुद्गल) दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं. दोनों विजातीय हैं। उनका सम्बन्ध “विजातीय सम्बन्ध" कहलाता है ।

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