Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 282
________________ २६८ भूमिका ( गुणस्थान) मन गुप्ति मार्ग मार्गणा मीमांसा मोक्ष यथार्थ ज्ञान युक्ति योजन रज्जू जैन दर्शन और संस्कृति २. असत्य भाषा — असत्य (अयथार्थ) बात बोलना । ३. मिश्र भाषा - सत्य और असत्य का मिश्रित रूप मिश्र भाषा कहलाती है, जो कपटपूर्वक बोली जाती है । ४. व्यवहार भाषा- -जो सत्य, असत्य न हो । जैसे - आदेश, उपदेश देना । आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तर गुणस्थान कहलाते हैं । इन्हें अध्यात्म की भूमिकाएं भी कहा जाता है। ये चौदह हैं। पहली चार भूमिकाएं असंयमी जीवों की, पांचवीं संयतासंयत की और छठी से चौदहवीं तक संयत जीवों की होती है 1 राग, द्वेष आदि कलुष भावों से मन को हटा लेना मनोगुप्ति है । मानसिक चिन्तन, स्मृति, कल्पना आदि में प्रवृत्त न होना । बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित अष्टांगिक साधना-पथ । ज़िन-प्रवचन दृष्ट जीव जिन भावों के द्वारा खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं । " “ अवग्रह” के द्वारा गृहीत अर्थ विशेष रूप से जिसके द्वारा विचारा जाता है, उसे मीमांसा कहते हैं । सामान्य भाषा में इसका अर्थ है— गहराई से चिन्तन करना । सब कर्मों से मुक्त आत्मा की अवस्था मोक्ष है । जैसी वस्तु है, उसे उसी रूप में जानना । न्याय संगत या तर्कसंगत विचार | दूरी मापने का प्राचीनकालीन माप । सामान्यतः १ योजन के ८ मील होते हैं। पर जो शाश्वत - कालीन क्षेत्र आदि हैं, उनके माप सामान्य से १००० गुने होते हैं । अतः उस सन्दर्भ में योजन ८००० मील होता है। विशाल दूरी नापने का एक माप जो जैन विश्व - विज्ञान में प्रयुक्त हुआ है। आधुनिक विज्ञान जो 'प्रकाश-वर्ष' का प्रयोग लम्बी दूरियों के मापने

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