Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 273
________________ परिशिष्ट । अविनाभावी अविभागी २५९ विशेष प्रकार का संबंध—जिसके बिना जिसकी सिद्धि न हो उसे अविनाभावी संबंध कहते हैं, जैसेजहाँ-जहाँ धुआं है, वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य है। अथवा जहाँ-जहाँ वर्षा है, वहाँ-वहाँ मेघ अवश्य हैं। जिसके विभाग न हो सके वह अंश अविभागी (indivisible) कहलाता है। प्रदेश, परमाणु और समय अविभागी हैं। जैन गणित के अनुसार संख्याएं तीन प्रकार की हैं—संख्यात, असंख्यात और अनन्त। असंख्यात अनन्त से कम और संख्यात से अधिक है। जिस प्रवृत्ति में हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि का प्रयोग हो, वह 'असंयम-मय' कहलाती है। जिस कर्म के उदय से दुःख, पीड़ा, वेदना आदि का संवेदन हो, वह कर्म असात वेदनीय कर्म कहलाता असंख्यात असंयममय असात वेदनीय अस्तिकाय अस्तित्व अस्तित्व-विषयक अस्ति-धर्म जो द्रव्य अनेक सूक्ष्म विभागों (प्रदेशों) का है और जो आकाश (space) में विस्तार (extension) बनाए रखता है, अस्तिकाय है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से अस्ति . का अर्थ है—प्रदेश और काय का अर्थ है-समूह। होना, विद्यमानता (existence)। वस्तु के मूल अस्तित्व के विषय में (ontological)। धर्म यानी गुण या स्वभाव। जो अस्तित्व--सूचक गुण है वह अस्ति-धर्म है। देखें, नास्तिधर्म । अग्नि में 'उष्णता' अस्ति-धर्म है। जिस पदार्थ को किसी हेतु यानी तर्क के द्वारा नहीं जाना जा सकता। जो आत्मा (चैतन्य-लक्षण-युक्त) के स्वतन्त्र चैकालिक अस्तित्व का स्वीकार करे, वह सिद्धान्त । जैन धर्म के मूल शास्त्र आगम कहलाते हैं। आगमों में भगवान् महावीर की वाणी को उनके अहेतुगम्य आत्मवाद आगम

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