Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 278
________________ २६४ त्रस त्रस-नाड़ी जैन दर्शन और संस्कृति संसारी जीव का एक प्रकार जो गमनागमन करने में सक्षम है। हित की प्रवृत्ति एवं अहित की निवृत्ति के निमित्त गमन करने वाले जीव त्रस कहलाते हैं। पूरे लोक का मध्यवर्ती वह भाग जहाँ गमनशील प्राणी जन्म लेते हैं, उसे त्रस-नाड़ी कहते हैं। वस-नाड़ी चौदह रज्जू लम्बी होती है, पर उसकी गहराई और चौड़ाई केवल एक रज्जू है। योग दर्शन के अनुसार दुःख के तीन प्रकार हैं१. आध्यात्मिक, २. आधिभौतिक, ३. आधिदैविक। वे कर्म जो पुरुषार्थ-विशेष के द्वारा परिवर्तित हो त्रिविध दुःख दलिक सकते हैं। देश द्रव्य द्रव्य कर्म द्रव्य इन्द्रिय द्रव्यार्थिक नय किसी भी वस्तु का बुद्धि द्वारा परिकल्पित एक विभाग या अंश 'देश' कहलाता है। देश वस्तु से सदा संलग्न होता है। faga do iftar ygtef (ultimate substances) जिन्हें अन्य पदार्थ में बदला नहीं जा सकता। जैन दर्शन ने छह द्रव्य माने हैं-धर्म द्रव्य (गति-माध्यम), अधर्म द्रव्य (स्थिति-माध्यम), आकाश, काल, पुद्गल और जीव। आत्मा के साथ बंधनेवाले कर्म-पुद्गल 'द्रव्य-कर्म' कहलाते हैं। (देखें, भाव-कर्म)। देखें, भाव इन्द्रिय। नय का अर्थ है दृष्टिकोण। जब वस्तु को केवल द्रव्य की दृष्टि से देखा जाता है, तब उस दृष्टिकोण को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं। द्रव्य ही जिसका प्रयोजन हो, वह द्रव्यार्थिक है। पर्याय (अंश) को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य (अंश) को ग्रहण करता है, वह द्राव्यार्थिक नय है। देखें, पर्यायार्थिक नय । जिस पुद्गल में दो परमाणु होते हैं, वह द्विप्रदेशी या द्वयणुक स्कन्ध कहलाता है। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी. चतुःप्रदेशी आदि स्कन्ध होते हैं। देखें, स्कन्ध । धर्म का दर्शन (Philosophy of Religion) धर्म-दर्शन है। धर्म लोकोत्तर तत्त्व में मान्यता की सचक प्रणाली है। द्विप्रदेशी (द्वयणुक) स्कन्ध धर्म-दर्शन

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