Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 277
________________ परिशिष्ट गवेषणा गुण गुणस्थान घात्य-कर्म चरम जल्प जीवच्छरीर ज्ञेय तज्जीव- तच्छरीरवाद तिर्यक्- प्रचय तिर्यग्-लोक २६३ मृत्यु के बाद जीव मुनष्य, देव, नारक या तिर्यंच (पशु, पक्षी, कीट-पतंग या स्थावर जीव आदि) — इन चार गतियों में से किसी एक गति में जाता है और जन्म लेता है 1 जिस ज्ञान के द्वारा अपने अपूर्व अस्तित्व की खोज की जाती है। वह गवेषणा है। गहराई से छानबीन करना गवेषणा है । द्रव्य के सहभावी धर्म को गुण कहते हैं । गुण सदा द्रव्य के पास रहता है । देखें, भूमिकाएं जो कर्म आत्मा के मूल स्वभाव ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा और चारित्र तथा शक्ति को हानि पहुँचाते हैं, वे घात्यकर्म कहलाते हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय – ये चार घात्य कर्म हैं शेष चार अघात्य हैं । अन्तिम या उत्कृष्ट । जो चरम नहीं है, वह अचरम है 1 प्रमाण और तर्क के द्वारा स्वपक्ष का स्थापन और परपक्ष का खण्डन होने पर और सिद्धान्त के अनुकूल होने पर भी यदि छल, जाति और निग्रह - स्थान का प्रयोग किया जाय, तो वह जल्प कहा जाता है । सजीव शरीर । जब तक आत्मा (जीव) शरीर में है, तब तक जीवच्छरीर कहलाता है । जानने योग्य या जिसे जानते हैं, वह वस्तु । जो सिद्धान्त जीव और शरीर को एक मानता है. जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता । देखें, ऊर्ध्व-प्रचय | लोक तीन प्रकार का है - तिरछा, ऊंचा और नीचा । तिर्यग् लोक (तिरछा लोक) अठारह सौ योजना ऊंचा और असंख्य द्वीप - समुद्र - परिणाम विस्तृत है । असंख्य द्वीप - समुद्र तिर्यक् समभूमि पर तिरछे अवस्थित हैं। अतः उसको तिर्यग् लोक कहते हैं । यह पूरे लोक के मध्य में हैं । 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286