Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 275
________________ परिशिष्ट २६१ उदय उदीरणा उद्वर्तना उपादान कारण (Material Cause) निमित्त से प्रति-समय अपने आप में जो नवीन अवस्था की प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं। देखें, व्यय। कर्म जब भोगे जाते हैं, तब उनकी अवस्था को 'उदय' कहते हैं। कर्म की एक अवस्था जिससे निर्धारित समय से पूर्व कर्मों को उदय में लाया जाता है। उदीरणा में अपवर्तना होना जरूरी है। उदीरणा पुरुषार्थ या अन्य निमित्त से भी हो सकती है। उदीरणा की प्रक्रिया से जीव विशेष पुरुषार्थ द्वारा निर्धारित समय से पूर्व उनसे मुक्त हो सकता है। कर्म की अवस्था जिसमें कर्म की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होती है। अर्थात् जिससे बंधे हुए कर्मों का काल-मान बढ़ जाता है और रस (विपाक) तीव्र बन जाता है, वैसा प्रयल वर्तना की अवस्था के लिए जिम्मेवार है। . जो कारण स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जाता है, वह उपादान कारण कहलाता है। जैसे घड़े का उपादान कारण मिट्टी है। ग्रहण करने योग्य, हितकर । देखें, हेय। वैदिक परम्परा के मौलिक ग्रन्थ, जो वेदों के बाद ऋषियों द्वारा रचे गए। वस्तु में दो प्रकार के धर्म हैं—क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती या सहवर्ती । क्रमवर्ती को ऊर्ध्व प्रचय और अक्रमवर्ती को तिर्यक प्रचय कहते हैं। ऊर्ध्व प्रचय 'काल' की अपेक्षा से है, तिर्यक्प्रचय क्षेत्र (आकाश) की अपेक्षा से हैं। अनुकरण की प्रवृत्ति अथवा अव्यक्त चेतना या सामान्य उपयोग, जैसे—लताएं वृक्ष पर चढ़ती हैं। यह वृक्षारोहण का ज्ञान ओघ-संज्ञा है। वीर्य का अर्थ है—आत्म-शक्ति। लब्धि-वीर्य को काम में लेकर आत्मा उपयुक्त पुद्गलों (शरीर आदि) के संयोग से जो सामर्थ्य पैदा करता है, उसे उपादेय उपनिषद् ऊर्ध्व-प्रचय और तिर्यक्-प्रचय ओघ-संज्ञा करण-वीर्य

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